Saturday, June 27, 2015

लघुकथा - नहले पर दहला

रघुविन्द्र यादव की लघुकथा 

"शेर के आतंक से परेशान जंगल के जानवरों ने शेर से भेंट करके तय किया कि हर रोज़ एक जानवर शेर के भोजन के लिए खुद उसके पास जाएगा और शेर किसी को नहीं मारेगा|
कुछ दिन बाद एक खरगोश की बारी आई तो वह देर से गया| गुस्से से तमतमाए शेर ने कहा-"एक तो तू छोटा-सा ऊपर से देर से आया है|” 
“क्या करता महाराज, रास्ते में दूसरा शेर मिल गया था, बड़ी मुश्किल से बचकर आया हूँ|”
“हमारे क्षेत्र में दूसरा शेर? चलो दिखाओ|”
“महाराज इस कुएं में है|”
शेर ने झांककर देखा तो परछाई दिखी| दहाड़ा तो कुएँ से भी आवाज आई| शेर ने कहा-“हाँ भई, शेर तो है, मगर ये तो बिलकुल मेरे जैसा दिखता है और दहाड़ता भी मेरी ही तरह है, जरुर मेरा ही भाई है जो शायद बचपन में कुएं में गिर गया होगा| चलो जंगल में जाकर कहो आज से एक नहीं दो जानवर भेजेंगे, एक मेरे लिए और दूसरा मेरे भाई के लिए|”

कुमार सुनील की कविता

ये कुछ अजीब नहीं लगता 
की आप उनसे सवाल करें अपने 
गांव के बारे में 
और वे कथक की भावभंगिमाओं पर 
व्याख्यान देने लगें 
कई बार मुझे लगने लगता है 
मैंने दर्शनशास्त्र की कक्षा में 
पराठे बनाने की रेसिपी पूछ ली है 
ऐसे अवसरों पर उन्हें मैं शामियाने में 
खामखा घुस आये 
कुत्ते सा लगता होऊंगा 
कल ही तो एक अदना सवाल किया था 
पिछले दिनों मर गए किसान के बारे में 
और विदेश निति पर भाषण पिलाने लगे 
हद तो तब हो गई 
जब उनसे कहा 
बाबू जी हम कहाँ से खाएं दाल रोटी 
भाव दो देखिये जरा 
तो बोले 
काहे दिमाग का दही किये जा रहे हो 
काल रेट देखिये कितना सस्ता किये हैं 
जी भर के बतियाया कीजिये अब 
दाल रोटी के बिना मर थोड़े ना जाएंगे 
और भी बहुत कुछ है खाने को । 

बहुत से सवाल 
उस मितली की तरह होते हैं 
जो पेट में घुमड़ती तो है 
पर बाहर नहीं आती 
ये बड़ा तकलीफ देय होता है 
डर लगता है सवालों 
की उलटी से 
हो सकता है आपके सवाल बाहर 
निकलने से पहले ही 
आपका गला घोंट दिया जाये 
या आपकी गली सड़ी लाश 
गन्दे नाले में मिले 
कुछ भी हो 
ये सवाल जरूरी भी होते हैं 
लेकिन इस लोकतंत्र ने 
इतनी आज़ादी कहां दी है 
एक आम आदमी को 
की वह प्रधानमन्त्री की मेज पर 
सवालों की उल्टी कर सके ।

कविता - कम्मी ठाकुर

मैं समझ नहीं पाया

मैं अभी तक
समझ नहीं पाया
आखिर कैसे
युग-युगातंर की अच्छाई और सच्चाई
एक पल में
झूठ व बुराई से
हार जाती है
क्यों वर्षों के तप, यश,
सद्कर्म, धर्म और भलाई की कमाई
एक छोटी-सी भूल छीन लेती है

मैं आज तक
समझ नहीं पाया
दुनिया में अच्छाई, सच्चाई
और बुराई की सांकेतिक परिभाषा
क्योंकि अच्छाई और सच्चाई की डगर
संयमित, कठोर और विशाल
पदबंदो के बावजूद
अपने उसूलों, सिद्धांतो, नैतिकता
और मानवीय मूल्यों की स्थापना में
सदैव सीमान्त सैनिक की भाँति
अडिग, सतर्क और सावधान रहती है
किंतु फिर भी एक छोटी-सी
बुराई की गोली और बोली
उस कवचयुक्त सच्चाई और अच्छाई
की प्रतिमा को पलभर में
विखंडित कर उसे बदनाम कर देती है
फिर सच्चाई और अच्छाई को
अपने वजूद की खातिर
दुनिया में यदा-कदा-सर्वदा
महाभारत लड़़नी पड़ी है
भीष्म प्रतिज्ञा करनी पड़ी है
फिर भी आज स्थिति वहीं खड़ी है
इसके विपरीत अच्छाई व सच्चाई को
अपना अस्तित्व साबित करने के लिए
लम्बा संघर्ष करना पड़ता है
राम को वनवास,
भरत को सिंहासन त्याग,
पांडवों को अज्ञातवास
और कुमार श्रवण को
चार धाम से गुजरना पड़ता है
किंतु फिर भी आखिर क्यों
बुराई का साम्राज्य शाश्वत् है
और इंसां उस पर आशवस्त है
यह ज्ञात होते हुए भी कि
रहती सदैव अन्त में
विजय, अमर बाईबल, कुरान,
गुरू ग्रन्थ साहिब और गीता भागवत है
गीता भागवत है।

 कम्मी ठाकुर ‘‘मुसाफ़िर’’

ग़ज़ल - कृष्णा कुमारी 'कमसिन'

जब तू पहली बार मिला था
दिल इक गुञ्चे–सा चटका था

धूप में बारिश भीग रही थी
इन्द्रधनुष में चाँद खिला था

तू चुप था यह कैसे मानूं
मैंने सब कुछ साफ सुना था

सच ही मान लिया क्या तू ने
वो तो मैंने झूठ कहा था

अपनी हथेली पर मँहदी से
मैंने तेरा नाम लिखा था

दुख में मुझको छोड़ गया क्यूँ
तू ही तो मेरा अपना था

उस बारिश को कैसे भूलूँ
जब मैं भीगी, तू भीगा था

वो लम्हे कितने अच्छे थे
जिन मे तेरा साथ मिला था

उस दिन तुझ से मिलकर “कमसिन”
घर आकर इक गीत लिखा था




बिन बरसी बदली- डॉ.लोक सेतिया

कहानी

चालीस वर्ष बाद बस में अचानक मुलाकात हो गई राकेश और सुनीता की। कालेज में साथ साथ पढ़ते रहे थे, उम्र चाहे बढ़ गई हो तब भी पहचान ही लिया था सुनीता ने राकेश को जो दूसरी तरफ बैठा था। और उठ कर उसके पास जाकर कहा था, हैलो राकेश कैसे हो। राकेश भी पहचान गया था सुनीता को, बोला था अरे आप सुनीता जी, नमस्कार, मैं अच्छा हूं आप कैसी हैं। इतने साल हो गये, अचानक आपसे मिलकर बहुत खुशी हो रही है। मुझे भी आपको देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा है, क्या आप भी दिल्ली जा रहे हैं, सुनीता ने पूछा था। हां दिल्ली में बेटा जॉब करता है, उसके पास जा रहा हूं, रहता अभी भी अपने शहर में ही हूं, राकेश ने बताया था। फिर पूछा था कि आप क्या दिल्ली में रहती हैं आजकल। नहीं, सुनीता बोली थी, मेरी शादी तो राजस्थान में हुई थी और वहीं रहती हूं, छोटी बहन रहती है दिल्ली में, उसके पास जा रही हूं। सुनीता ने कहा था, आप उधर आकर बैठ जाओ मेरे साथ की सीट खाली है, साथ साथ बैठ कर बातें करेंगे। और राकेश सुनीता के साथ जाकर बैठ गया था। कालेज की बातें, फिर अपनी ज़िंदगी की बातें, अपने परिवार की जीवनसाथी की, बच्चों की बातें इक दूजे से पूछने बताने लगे थे। आपस में मोबाईल फोन नम्बर लिये-दिये गये ताकि आगे भी बात होती रहे। यूं ही बात चली तो पता चला कि दोनों ही फेसबुक पर भी हैं, फोन पर ही राकेश ने सुनीता को अपनी प्रोफाईल दिखाई थी और फ्रैंडशिप रिक्वेस्ट भी भेज दी थी। सुनीता ने बताया कि वो फेसबुक पर कभी कभी ही रहती है, और उसने पूछा था राकेश क्या आप मुझे अपना इमेल दे सकते हैं। क्यों नहीं, राकेश ने कहा था, और ऐसे दोनों ने अपना ईमेल दे दिया था। कुछ घंटे कैसे बीत गये थे दोनों को पता तक नहीं चला था, दिल्ली पहुंच कर जब अलग होने लगे तब सुनीता ने पूछा था कि क्या वो ईमेल पर आपस की बातें आगे भी करते रहेंगे। राकेश का जवाब था कि बेशक वो मेल कर सकती है और राकेश ज़रूर जवाब दिया करेगा। सुनीता ने ये वादा भी लिया था कि दोनों की दोस्ती की बात इक दूजे तक ही रहेगी।
राकेश को कुछ दिन बाद सुनीता का भेजा मेल मिला था। सुनीता ने लिखा था, शायद ये बात आपको पहले भी कालेज के ज़माने में महसूस हुई हो कि मैं आपको बेहद पसंद करती थी। मगर तब आप लड़के होकर भी नहीं कह सकते थे ये बात तो मैं एक लड़की अगर कहती तो आवारा समझी जाती। फिर भी एक बार मैंने आपकी किताब में एक पत्र रखा था, आपसे किताब मांगी थी और अगले पीरियड में पत्र रख कर वापस भी कर दी थी। मगर उसके बाद इक डर सा था कि कहीं कोई दूसरा न पढ़ ले, तभी कालेज का समय समाप्त होते ही फिर आपसे किताब मांग ली थी इक दिन को। सच कहूं वो पत्र मैंने कभी फाड़ा नहीं था, दिल पर लिखा हुआ है आज तक, मालूम नहीं ये बात बताना उचित है या अनुचित, मगर इक सवाल हमेशा मेरे मन में रहता रहा है कि अगर मैंने तब वो पत्र आपको पढ़ने दिया होता तो क्या आज मेरी ज़िंदगी कुछ अलग होती और शायद आपकी भी। क्या ये हम दोनों के लिए सही होता। ऐसा बिल्कुल नहीं कि मुझे कोई शिकायत हो अपने जीवन से या किसी से भी, पर यूं ही सोचती हूं कि तुम साथ होते तो क्या होता। खाली समय में जाने कितनी बार ये सवाल मैंने खुद से किया है। पता नहीं आपको याद भी है या नहीं कि एक बार वािर्षक समारोह में मंच पर हमने साथ साथ गीत गया था। तब जब उसकी फोटो देखी थी तब वो एक ही थी और मैंने आपको कहा था कि ये मुझे लेने दो और आप ने ली हुई वापस कर दी थी मेरे लिये। मेरे पास हमेशा वो फोटो रही है और वो गीत हमेशा गुनगुनाती रहती हूं मैं। राकेश मैंने उस पत्र में लिखा था तुम मेरे सपनों के राजकुमार हो, मेरे मन में रहते हो, मुझे नहीं पता कि उसको प्यार कहते हैं या मात्र आकर्षण, मगर वो भावना मैंने और किसी को लेकर कभी महसूस नहीं की थी। मैंने आपसे वादा लिया था आपस की बात किसी को नहीं बताने का रास्ते में बस में सफर में तो केवल यही बात बताने के लिये, जो जाने क्यों मुझे बतानी भी ज़रूरी थी और पूछनी भी कि आप क्या सोचते हैं इसको लेकर। 

राकेश ने बार बार पढ़ा था, सुनीता की मेल का इक इक शब्द बता रहा था कि उसने जो भी लिखा है सच्चे मन से और साहसपूर्वक लिखा है। राकेश ने सुनीता को रिप्लाई किया था ये लिख कर। मुझे नहीं मालूम कि आपको अब ये सारी बातें मुझे कहनी चाहिएं अथवा नहीं, हां इतना जानता हूं कि जो आपने अपने दिल में अनुभव किया उसमें कुछ भी न तो अनुचित था न ही अस्वाभाविक। अपने मन की सोच पर, पसंद, नापसंद पर किसी का बस नहीं होता है। इतना ज़रूर मैं भी आपकी ही तरह सच और इमानदारी से बताना चाहता हूं कि मुझे उस दिन आपसे मिलकर बहुत ही अच्छा लगा था और आज ये आपकी बातें पढ़कर भी इक खुशी अनुभव कर रहा हूं। खुशी इस बात की है कि शायद जीवन में पहली बार मुझे ये एहसास हुआ है कि कोई है जो दुनिया में मुझे भी पसंद करता है, चाहता है। नहीं मुझे भी किसी से ज़रा भी शिकवा शिकायत नहीं है, मगर ये भी हकीकत है कि मुझे इस दुनिया में कभी भी तिरिस्कार और नफरत के सिवा कुछ भी मिला नहीं किसी से। सच कहूं तो मैंने खुद ही कभी सोचा ही नहीं कि मैं भी किसी के प्यार के काबिल हूं। मुझसे हर किसी को शिकायत ही रही है, मैं हमेशा इस अपराधबोध को लेकर जिया हूं कि मुझे जो भी सभी के लिये करना चाहिए वो चाह कर भी मैं कर सका नहीं जीवन भर। इसलिये मुझे यही लगता है कि ये अच्छा ही हुआ जो आपने वो पत्र मुझसे वापस ले लिया था मेरे पढ़ने से पहले ही। वरना जो भावना आज चालीस वर्ष बाद भी आपके मन में मेरे प्रति बाकी है वो शायद नहीं रह पाती। मैं आपको कुछ भी दे नहीं पाता ठीक उसी तरह जैसे अन्य किसी को नहीं दे सका हूं। शायद किसी को नहीं मालूम कि मैं खुद इक तपते हुए रेगिस्तान की तरह हूं। जो खुद इक बूंद को तरसता रहा उम्र भर वो भला किसी की प्यास कैसे बुझा सकता था। सुनीता आपकी भावना मेरे लिये किसी बदली से कम नहीं है। इसलिये ये अच्छा हुआ जो मैंने आपका वो पत्र नहीं पढ़ा, आपकी ये मेल भी डिलीट कर दूंगा, जैसा आपने लिखा है, मगर ये सब अब मेरे भी मन में कहीं रहेगा हमेशा। मैं आपको ये सब लिखने पर क्या कहूं, मैं नहीं समझ पा रहा। धन्यवाद या मेहरबानी जैसे शब्द काफी नहीं हैं। हम जब तक हैं अच्छे दोस्त बन कर ज़रूर रह सकते हैं। मुझे आपके जवाब की प्रतीक्षा रहेगी। शायद मैं आपको अब कोई खुशी दे सकूं मित्र बन कर ही।
सुनीता का संक्षिप्त सा जवाब मेल भेजने के थोड़ी देर बाद ही आ गया था, लगता है जैसे उसको इंतज़ार था राकेश की मेल का और पढ़ते ही रिप्लाई कर दिया था। लिखा था, हो सकता है मुझे आपसे कुछ भी हासिल नहीं होता, जैसा आपने लिखा है, कारण चाहे जो भी हों। मगर मुझे अफ़सोस है तो इस बात का कि मैं वो बदली हूं जो शायद आपकी प्यास बुझा सकती थी। जो कभी बरस ही नहीं पाई।
-डा. लोक सेतिया



Friday, June 19, 2015

गीत - डॉ. प्रदीप शुक्ल

मेघा आये रे 

बिजुरी चमकी
धरती महकी
दादुर गाये रे !
मेघा आये, मेघा आये
मेघा आये रे !!

जोरों से चलती पुरवाई
छप्पर ऊपर बेल लजाई
पतली कमर टूट ना जाए
लिपटी है वो सौ बल खाई
बस मुंडेर की कग्गर उससे
छूट न जाए रे
मेघा आये, मेघा आये
मेघा आये रे !!

आसमान का पूरा आँगन
बदरा दौड़ रहे घोड़ा बन
आतिशबाजी करे बिजुरिया
बूँदें नाचे छनन छनन छन
जोर जोर से झींगुर
राग कहरवा गाये रे
मेघा आये, मेघा आये
मेघा आये रे !!

टपक रही छत कोने कोने
गीले सारे हुए बिछौने
घुस आया पानी दालान तक
खटिया मचिया लगा भिगोने
सिर पर बोरी डाले कक्का
छत पर धाये रे
मेघा आये, मेघा आये
मेघा आये रे !!

- डॉ. प्रदीप शुक्ल

लोक संस्कृति की लय है कजरी - के.के. यादव

सावन के मौसम में प्रेम की अनुभूति है कजरी

भारतीय परम्परा का प्रमुख आधार तत्व उसकी लोक संस्कृति है। यहाँ लोक कोई एकाकी धारणा नहीं है बल्कि इसमें सामान्य-जन से लेकर पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, ऋतुएं, पर्यावरण, हमारा परिवेश और हर्ष-विषाद की सामूहिक भावना से लेकर श्रृंगारिक दशाएं तक शामिल हैं। ‘ग्राम-गीत‘ की भारत में प्राचीन परंपरा रही है। लोकमानस के कंठ में, श्रुतियों में और कई बार लिखित-रूप में यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होते रहते हैं। पं. रामनरेश त्रिपाठी के शब्दों में-‘ग्राम गीत प्रकृति के उद्गार हैं। इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है। छन्द नहीं, केवल लय है। लालित्य नहीं, केवल माधुर्य है। ग्रामीण मनुष्यों के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति मानो गान करती है। प्रकृति का यह गान ही ग्राम गीत है....।’ इस लोक संस्कृति का ही एक पहलू है- कजरी। ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रकृति की अनुपम छटा के बीच कजरी की धारायें समवेत फूट पड़ती हैं। यहाँ तक कि जो अपनी मिटटी छोड़कर विदेशों में बस गए, उन्हें भी यह कजरी अपनी ओर खींचती है। तभी तो कजरी अमेरिका, ब्रिटेन इत्यादि देशों में भी अपनी अनुगूंज छोड़ चुकी है। सावन के मतवाले मौसम में कजरी के बोलों की गूंज वैसे भी दूर-दूर तक सुनाई देती है -

रिमझिम बरसेले बदरिया,
गुईयां गावेले कजरिया
मोर सवरिया भीजै न
वो ही धानियां की कियरिया
मोर सविरया भीजै न।

वस्तुतः ‘लोकगीतों की रानी’ कजरी सिर्फ गायन भर नहीं है बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। प्रतीक्षा, मिलन और विरह की अविरल सहेली, निर्मल और लज्जा से सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी, आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर, उन्हें जीवंत करने वाली ‘कजरी’ सावन की हरियाली बहारों के साथ जब फिज़ा में गूंजती है तो देखते ही बनता है। प्रतीक्षा के पट खोलती लोकगीतों की श्रृंखलाएं इन खास दिनों में गजब सी हलचल पैदा करती हैं, हिलोर सी उठती है, श्रृंगार के लिए मन मचलता है और उस पर कजरी के सुमधुर बोल! सचमुच ‘कजरी’ सबकी प्रतीक्षा है, जीवन की उमंग और आसमान को छूते हुए झूलों की रफ्तार है। शहनाईयों की कर्णप्रिय गूंज है, सुर्ख लाल मखमली वीर बहूटी और हरियाली का गहना है, सावन से पहले ही तेरे आने का एहसास! महान कवियों और रचनाकारों ने तो कजरी के सम्मोहन की व्याख्या विशिष्ट शैली में की है। मौसम और यौवन की महिमा का बखान करने के लिए परंपरागत लोकगीतों का भारतीय संस्कृति में कितना महत्व है-कजरी इसका उदाहरण है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं-

घरवा में से निकले ननद-भउजईया
जुलम दोनों जोड़ी साँवरिया।

छेड़छाड़ भरे इस माहौल में जिन महिलाओं के पति बाहर गये होते हैं, वे भी विरह में तड़पकर गुनगुना उठती हैं ताकि कजरी की गूँज उनके प्रीतम तक पहुँचे और शायद वे लौट आयें-

सावन बीत गयो मेरो रामा
नाहीं आयो सजनवा ना।
........................
भादों मास पिया मोर नहीं आये
रतिया देखी सवनवा ना।

यही नहीं जिसके पति सेना में या बाहर परदेश में नौकरी करते हैं, घर लौटने पर उनके सांवले पड़े चेहरे को देखकर पत्नियाँ कजरी के बोलों में गाती हैं -

गौर-गौर गइले पिया
आयो हुईका करिया
नौकरिया पिया छोड़ दे ना।

एक मान्यता के अनुसार पति विरह में पत्नियाँ देवि ‘कजमल’ के चरणों में रोते हुए गाती हैं, वही गान कजरी के रूप में प्रसिद्ध है-

सावन हे सखी सगरो सुहावन
रिमझिम बरसेला मेघ हे
सबके बलमउवा घर अइलन
हमरो बलम परदेस रे।

नगरीय सभ्यता में पले-बसे लोग भले ही अपनी सुरीली धरोहरों से दूर होते जा रहे हों, परन्तु शास्त्रीय व उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी अभी भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों की खास लोक संगीत विधा है। कजरी के मूलतः तीन रूप हैं- बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है-

बीरन भइया अइले अनवइया
सवनवा में ना जइबे ननदी।
..................
रिमझिम पड़ेला फुहार
बदरिया आई गइले ननदी।

विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज्यादातर मंचीय गायक गाना पसन्द करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है-

पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना
जबसे साड़ी ना लिअईबा
तबसे जेवना ना बनईबे

तोरे जेवना पे लगिहेैं मजूरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना।

विंध्य क्षेत्र में पारम्परिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चौपालों में जाकर स्त्रियाँ उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जाता। कजरी गीतों की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परम्परा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरम्भ होता है। स्वस्थ परम्परा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वन्दता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में न तो सार्वजनिक किया जाता है और न ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है। केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है-

कइसे खेलन जइबू
सावन में कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी
संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।

बनारसी और मिर्जापुरी कजरी से परे गोरखपुरी कजरी की अपनी अलग ही टेक है और यह ‘हरे रामा‘ और ‘ऐ हारी‘ के कारण अन्य कजरी से अलग पहचानी जाती है-

हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हारी।

सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु न तड़पेगा, फिर वह चाहे चन्द्रमा ही क्यों न हो-
चन्दा छिपे चाहे बदरी मा
जब से लगा सवनवा ना।

विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेकरारी भी बढ़ती जाती है। फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का-

पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से
जायके साइकील से ना
पिया मेंहदी लिअहिया
छोटकी ननदी से पिसईहा

अपने हाथ से लगाय दा
कांटा-कील से
जायके साइकील से।
..................
धोतिया लइदे बलम कलकतिया
जिसमें हरी- हरी पतियां।

ऐसा नहीं है कि कजरी सिर्फ बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के अंचलों तक ही सीमित है बल्कि इलाहाबाद और अवध अंचल भी इसकी सुमधुरता से अछूते नहीं हैं। कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहाँ मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैली ‘धुनमुनिया’ है, जिसमें महिलायें झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुयी अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं।

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों में तो रक्षाबन्धन पर्व को ‘कजरी पूर्णिमा’ के तौर पर भी मनाया जाता है। मानसून की समाप्ति को दर्शाता यह पर्व श्रावण अमावस्या के नवें दिन से आरम्भ होता है, जिसे ‘कजरी नवमी’ के नाम से जाना जाता है। कजरी नवमी से लेकर कजरी पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव में नवमी के दिन महिलायें खेतों से मिट्टी सहित फसल के अंश लाकर घरों में रखती हैं एवं उसकी साथ सात दिनों तक माँ भगवती के साथ कजमल देवी की पूजा करती हैं। घर को खूब साफ-सुथरा कर रंगोली बनायी जाती है और पूर्णिमा की शाम को महिलायें समूह बनाकर पूजी जाने वाली फसल को लेकर नजदीक के तालाब या नदी पर जाती हैं और उस फसल के बर्तन से एक दूसरे पर पानी उलचाती हुई कजरी गाती हैं। इस उत्सवधर्मिता के माहौल में कजरी के गीत सातों दिन अनवरत् गाये जाते हैं।

कजरी लोक संस्कृति की जड़ है और यदि हमें लोक जीवन की ऊर्जा और रंगत बनाये रखना है तो इन तत्वों को सहेज कर रखना होगा। कजरी भले ही पावस गीत के रूप में गायी जाती हो पर लोक रंजन के साथ ही इसने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों में सामाजिक चेतना की अलख जगाने का भी कार्य किया है। कजरी सिर्फ राग-विराग या श्रृंगार और विरह के लोक गीतों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें चर्चित समसामयिक विषयों की भी गूँज सुनायी देती है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। आजादी की लड़ाई के दौर में एक कजरी के बोलों की रंगत देखें-

केतने गोली खाइके मरिगै
केतने दामन फांसी चढ़िगै
केतने पीसत होइहें जेल मां चकरिया
बदरिया घेरि आई ननदी।

1857 की क्रान्ति पश्चात जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी हुकूमत को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें कालापानी की सजा दे दी गई। अपने पति को कालापानी भेजे जाने पर एक महिला ‘कजरी‘ के बोलों में गाती है-

अरे रामा नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा
नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
घरवा में रोवै नागर, माई और बहिनियां रामा
से जिया पैरोवे बारी धनिया रे हरी।

स्वतंत्रता की लड़ाई में हर कोई चाहता था कि उसके घर के लोग भी इस संग्राम में अपनी आहुति दें। कजरी के माध्यम से महिलाओं ने अन्याय के विरूद्ध लोगों को जगाया और दुश्मन का सामना करने को प्रेरित किया। ऐसे में उन नौजवानों को जो घर में बैठे थे, महिलाओं ने कजरी के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए प्रेरित किया-

लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु
मरद से बनिके लुगइया आए हरि
पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु
राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।

सुभाष चन्द्र बोस ने जंग-ए-आजादी में नारा दिया कि- ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हंे आजादी दूंगा, फिर क्या था पुरूषों के साथ-साथ महिलाएं भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो उठीं। तभी तो कजरी के शब्द फूट पड़े-

हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजायी रे हारी
कड़ा-छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा
हरे रामा, हाथ में झण्डा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।

महात्मा गाँधी आजादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातने द्वारा उन्होेंने स्वावलम्बन और स्वदेशी का
रूझान जगाया। नवयुवतियाँ अपनी-अपनी धुन में गाँधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानतीं और एक स्वर में कजरी के बोलों में गातीं-

अपने हाथे चरखा चलउबै
हमार कोऊ का करिहैं
गाँधी बाबा से लगन लगउबै
हमार कोई का करिहैं।

कजरी में ’चुनरी’ शब्द के बहाने बहुत कुछ कहा गया है। आजादी की तरंगंे भी कजरी से अछूती नहीं रही हैं-

एक ही चुनरी मंगाए दे बूटेदार पिया
माना कही हमार पिया ना
चद्रशेखर की बनाना, लक्ष्मीबाई को दर्शाना
लड़की हो गोरों से घोड़ांे पर सवार पिया।
जो हम ऐसी चुनरी पइबै, अपनी छाती से लगइबे
मुसुरिया दीन लूटै सावन में बहार पिया
माना कही हमार पिया ना।
.................
पिया अपने संग हमका लिआये चला
मेलवा घुमाये चला ना
लेबई खादी चुनर धानी, पहिन के होइ जाबै रानी
चुनरी लेबई लहरेदार, रहैं बापू औ सरदार
चाचा नेहरू के बगले बइठाये चला
मेलवा घुमाये चला ना
रहइं नेताजी सुभाष, और भगत सिंह खास
अपने शिवाजी के ओहमा छपाये चला
जगह-जगह नाम भारत लिखाये चला
मेलवा घुमाये चला ना

उपभोक्तावादी बाजार के ग्लैमरस दौर में कजरी भले ही कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई हो पर यह प्रकृति से तादातम्य का गीत है और इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना भी मौजूद है। इसमें कोई शक नहीं कि सावन प्रतीक है सुख का, सुन्दरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूं ही रिश्तोें को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार यूँ ही लुटाती रहेगी। कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है और जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परम्परा से जन-जन तक पहुँचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेजी से मिटते मूल्यों को भी बचाया जा सकता है। 

-कृष्ण कुमार यादव,
निदेशक डाक सेवाएँ,
राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र, जोधपुर -342001 मो0- 09413666599 

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के हाइकु

हाइकु

बीता आषाढ़
मुदित है प्रकृति
पावस ऋतु।
2-
बहका मन
रिमझिम फुहारें
छुआ जो तन!
3-
पिया के बिन
हरी-भरी धरती
आहें भरती।
4-
सावन हँसा
सतरंगी हो गये
'दोनों' खो गये।
5-
हुई जो प्रात
कल की 'भीगी रात'
बात ही बात!
6-
मन-विभोर
छायी है हरियाली
मन ही चोर!
7-
आ मन नच
नदी-नौका-पर्वत
सपने सच।
8-
यादों के साये
'सीमा पर चौकसी'
सावन जाये।
9-
शिव को प्रिय
सावन का महीना
भक्ति में रमा।
10-
श्रद्धा में डूबे
चले हैं काँवरिया
जय भोले की!
11-
'आ छू ले मुझे'
जब ये हवा बहे
मुझसे कहे!
12-
सर्वत्र हरा
मगन है किसान
मगन धरा।
13-
आया 'मैसेज़'
आते ही सावन के
आ जायेंगे 'वो'!
14-
छाये बादल
उमस छू-मंतर
मन-कमल!
15-
शिव प्रसन्न
बम-बम की गूँज
शुभ ही शुभ!

-डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष-अन्वेषी संस्था) फतेहपुर (उ.प्र.)-212601
मो.- 9839942005, 8574006355
ईमेल- doctor_shailesh@rediffmail.com 

Thursday, June 18, 2015

कविता - विजया भार्गव

इस बरसात में...

आज
इस बरसात मे
बहा दूँगी
तुझ से जुडी
हर चीज...
विसर्जित कर दूँगी
हमारे बीच का जोड़
कागज़ के वो पुर्जे बहाए
जो कभी खत कहलाते थे
उन में बसी खुशबू..?
कैसे बहाऊं
वो पीतल का छल्ला
बह गया..
पर उंगली पर पडा
ये निशान.
कैसे बहाऊं
ये रूमाल, ये दुप्पटा
सब बहा दिए
बचे
ढाई आखर
और
मन मे बसे तुम
कैसे बहाऊं..
लो..खोल दी मुट्ठी
कर दिया विसर्जित
इन के साथ
आज ..
खुद को भी बहा आई
कर आई
अपना विसर्जन
इस बरसात में...

-विजया भार्गव

ग़ज़ल - पवन अमर

ग़ज़ल 

वादा तो कर गये वो,
लेकिन मुकर गये वो ।

कुछ आदमी थे यहाँ,
अब जाने किधर गये वो ।

रात भर ठहर के तारे,
अल सुबह घर गये वो ।

इक बार देखा था,
दिल में उतर गये वो ।

फूल चुनने बैठे थे,
काँटों से भर गये वो ।

निकले जो घर से बाहर,
कुछ और निखर गये वो ।

चंद मोती संभाल रखे थे,
अश्कों में बिखर गये वो ।

- पवन अमर

त्रिलोक सिंह ठकुरेला के कुण्डलिया छंद

सावन  आया झूमकर

सावन  आया झूमकर, बरस रहा आकाश ।
जल की  बूँदें दे  रहीं,  सुख  का  मृदु अहसास ।।
सुख  का  मृदु  अहसास,  हुई अल्हड़  पुरवाई ।
विरही  हुए  अधीर,  काम  ने  आग  लगाई ।
' ठकुरेला ' कविराय, स्वप्न जागे  मनभावन ।
जगी  मिलन   की  आस, लौटकर  आया  सावन ।।

छम-छम छम-छम जल  गिरे, बरस  रहा  आनंद ।
मोर, पपीहा, कोकिला, गायें मिलकर  छंद  ।।
गायें मिलकर छंद, सभी की  मिटी उदासी ।
गूंजे आल्हा,  गीत, मल्हारें, बारहमासी ।
' ठकुरेला ' कविराय, घुल रही मन  में चम-चम ।
थिरके  सबके गात, थिरकती पावस छम-छम ।।        

पानी  बरसा गगन से, वसुधा हुई  निहाल । 
नदियाँ, नाले, कूप, सर,  सब  ही  मालामाल ।। 
सब  ही  मालामाल, खुशी  चौतरफा  छाई ।
महकी सौंधी गंध, प्यार  की  ऋतु  ले  आई ।
' ठकुरेला ' कविराय, लगा धरती इतरानी ।
सहसा आई  लाज,  हो  गयी  पानी पानी ।।

लेकर घट जल से भरे, घन दौड़े चहुँ  ओर  ।
मन चातक पागल हुआ, रह रह करता शोर  ।। 
रह  रह  करता शोर, प्रेम के  राग  सुनाये ।
काश, विरह  की  पीर, किसी  बदली तक  जाये ।
' ठकुरेला ' कविराय, जगत  का  सब  कुछ  देकर ।
हो  यह  जीवन  धन्य, प्यार  के  दो  पल लेकर ।।   

-  त्रिलोक  सिंह ठकुरेला 

गीत - श्वेता राय

प्रेम का रस छलका दो

सावन की रिमझिम बारिश में नेह प्रीत का राग सुना दो
प्रिय! तुम प्रेम का रस छलका दो|

जलती रातें विरह तपन से
सपने बहते द्रवित नयन से
मेघों के आगोश में छुप कर
मुस्काये चंदा भी गगन से
मेरी चाहत को प्रियवर तुम आशा का अवलम्ब दिला दो
प्रिय! तुम प्रेम का रस छलका दो|

देखूं छवि तब हरसे मन
प्रीत के मद में झूमे तन
प्रेम की इस रिमझिम फुहार से
सिक्त हो जीवन का कण कण
मेरी सपनों की बगिया में चाहत वाले फूल खिला दो
प्रिय! तुम प्रेम का रस छलका दो|

हुलसित मन को तेरे स्वर से
नापूं नभ मैं स्वप्निल पर से
सुन्दर स्नेहिल शुचि बन अपने
छू लेते जब अधर अधर से
मृतप्राय मेरी काया को प्रेम सुधा रस पान करा दो
प्रिय! तुम प्रेम का रस छलका दो|

- श्वेता राय




नज्में - हरकीरत 'हीर'

भरोसा 

कितनी बार
भरोसा किया था तुम पर
पर हर बार भरोसे के धागे टूटते रहे
आज उदासियाँ आँखों में खड़ी
पूछती हैं मुझसे
हीर तेरे घर भरोसे की कोई
तस्वीर क्यों नहीं ....

(2)

सन्नाटे …

कभी इन खिड़कियों को
जितनी उम्मीद से खोला था मैंने
सन्नाटे उतने ही टूट कर अंदर आये
अब उम्मीदें नहीं पूछतीं
तुम्हारे मकान की खिड़कियाँ
बंद क्यों हैं ……

(3)

ज़ख़्म ...

यादों को उलटते- पलटते
खुल जाते हैं अक्सर दर्द की टांके
वक़्त भी नहीं भर पाता
सारी उम्र …
मुहब्बत के ज़ख़्म ....

-हरकीरत 'हीर, गुवहाटी  

दोहे - कुमार गौरव अजीतेन्दु

धुन सावन की बज रही

ज्यों ही तन-मन में लगा, मस्त सावनी बाण।
अम्बर करने लग गया, मेघों का निर्माण॥

पूरी होने को पुनः हरियाली की आस।
बुझा जेठ की आग को, सावन आया पास॥

हरा-भरा फिर से हुआ, गोरी का श्रृंगार।
सावन बन बरसी मगन, साजन की मनुहार॥

धुन सावन की बज रही, करते नृत्य मयूर।
इक-दूजे से बोलते, कभी न जाना दूर॥

नदियाँ उपलाने लगीं, छलक रहें हैं ताल।
सब पर सावन का नशा, करने लगा कमाल॥

- कुमार गौरव अजीतेन्दु
शाहपुर, दानापुर (कैन्ट)

गीत - हरीन्द्र यादव

संगीत सुनाया सावन ने 

नील गगन में मेघमाल को, न्योत बुलाया सावन ने।
ढोलक, झांझ, मंजीरा का, संगीत सुनाया सावन ने।

नदी, ताल, सरवर, पोखर को, नवजीवन का दान मिला।
इन्द्रधनुष के सात रंगों से, जीवन को नव गान मिला।।
तेज तपन से मुक्ति देकर, मन हरियाया सावन ने।

दादुर, मोर, पपीहे बोलें, चमकें जुगनू टिमटिम से।
त्यौहारों की बगिया में, फल-फूल लगाए रिमझिम के।।
भाग-दौड़ की धूप-छांव में, मन उमगाया सावन ने।

पुरवा पवन चले सावन में, घटा उठे काली घनघोर।
पुलकित होकर किलकें बालक, नाच उठे सबका मन-मोर।
खुशियों की किलकारी सुनकर, शीश उठाया सावन ने।

व्यथा-कथा का पन्ना-पन्ना, बांच रहे थे जितने जन।
गीत और संगीत सुनें तो, हर्षित होते सबके मन।
अम्मां जैसी थपकी देकर, थपक सुलाया सावन ने।

हरियाली की चूनर ओढ़़े, छटा अनोखी छाई है।
रूप अनूप धारकर धरती, मन ही मन इतराई है।।
अरमानों के झूले ऊपर, खूब झुलाया सावन ने।

-हरीन्द्र यादव, गुड़गाँव

गीत - कल्पना रामानी

बरखा रानी नाम तुम्हारे

बरखा रानी! नाम तुम्हारे,
निस दिन मैंने छंद रचे।
रंग-रंग के भाव भरे,
सुख-दुख के आखर चंद रचे।
         
पाला बदल-बदल कर मौसम,
रहा लुढ़कता इधर उधर।
कहीं घटा घनघोर कहीं पर,
राह देखते रहे शहर।

कहीं प्यास तो कहीं बाढ़ के,
सूखे-भीगे बंद रचे।

कभी वादियों में सावन के,
संग सुरों में मन झूमा।
कभी झील-तट पर फुहार में,
पाँव-पाँव पुलकित घूमा।

कहीं गजल के शेर कह दिये,
कहीं गीत सानंद रचे।

कभी दूर वीरानों में,
गुमनाम जनों के गम खोदे।
अतिप्लावन या अल्प वृष्टि ने,
जिनके सपन सदा रौंदे।

गाँवों के पैबंद उकेरे,
शहर चाक-चौबन्द रचे।


-कल्पना रामानी

ग़ज़ल - राहुल गुप्ता

मुझको हिन्दुस्तानी लिखना

बातें नयी पुरानी लिखना ।
गीत कोई रूमानी लिखना ।

मुश्किल वक्त कठिन राह में,
बच्चों की नादानी लिखना ।

हिन्दू मुस्लिम के झगड़ों को,
शासन की शैतानी लिखना ।

भूख गरीबी के आलम में,
सबको दाना पानी लिखना ।

मस्तानों की टोली के संग,
मस्ती भरी जवानी लिखना ।

देश धरा की बात लिखो तो,
धरती अपनी धानी लिखना ।

प्यार मोहब्बत की बातों में,
मीरा-सी दीवानी लिखना ।

मेरा परिचय पूछे 'राहुल',
मुझको हिन्दुस्तानी लिखना ।

-राहुल गुप्ता, (मथुरा)

गीत - लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

रिमझिम रिमझिम सावन आया  

वसुधा पर छाई हरियाली
खेतों में भी रंगत आई |
धरती के आँगन में बिखरी
मखमल-सी हरियाली छाई ||
     
रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

उमड़ घुमड़ बदली बरसाए
सावन मन बहकाता जाए |
साजन लौट जब घर आये
गाल गुलाबी रंगत लाये ||
     
रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

जिया पिया का खिलखिल जाए  
नयनों से अमरित बरसाए |
तन मन में यौवन छा जाए
पिया मिलन के पल जब जाए ||
     
रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

साजन ने गजरे में गूंथा
गेंदे की मुस्काई कलियाँ |
बागों में झूला डलवाया
झूला झूले सारी सखियाँ ||
     
रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

शीतल मंद हवा का झोंका
मस्त मधुर यौवन गदराया |
मटक-मटक कर चमके बिजुरी
सजनी का भी मन इतराया ||
     
रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

हरियाली तीज त्यौहार में
चंद्रमुखी सी सजती सखियाँ
शिव गौरी की पूजा करती
मेहंदी रचे हाथों से सखियाँ |
     
रिमझिम-रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |

चंद्रमुखी मृगलोचनी-सी
नवल वस्त्र में सजकर सखियाँ |
झूम-झूम कर नाचे गावें
दृश्य देख हर्षाएं रसियाँ ||
     
रिमझिम रिमझिम सावन आया
वन उपवन में यौवन छाया |


-लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

Wednesday, June 17, 2015

ग़ज़ल - डॉ. राधेश्याम शुक्ल

बस्तियां जलती हुयी, हँसते समंदर देखिये
आज अपने वक़्त के नायाब मंज़र देखिये

कल तलक जिनको हवा का रुख समझ आता न था
आज उनके हुक्म से उठते बवंडर देखिये

हार कर भी जीतता आया सदा पोरस यहाँ
आज तक आये-गए कितने सिकंदर देखिये

देश है ऊँचा उठा पर इस तरह इस नाप से
आज बौने आसमां के हैं बराबर देखिये

पूछिए मत किस तरह मैंने गुजारी जिन्दगी
हर कदम पर आप भी खतरे उठा कर देखिये

खून पानी आग ये सब अब नहीं बच पायेंगे
वक़्त के हाथों उठे हैं तेज़ खंज़र देखिये

एक रसवंती नदी थी कल तलक हर आँख में
नाम पर उसके यहाँ अब रेट बंज़र देखिये

खून के सैलाब से तो कुछ न हासिल हो सका
अब जरा इक अश्रुकण में भी नहा कर देखिये

नापिए मत अपनी हलचल से मेरी गहराइयाँ
मैं समंदर हूँ जरा मुझको थहा कर देखिये||

-डॉ. राधेश्याम शुक्ल, हिसार/जरा सी प्यास रहने दे  

Tuesday, June 16, 2015

नज़्म- राजेन्द्रनाथ 'रहबर'

शाख से गुल को तोड़कर लाना कोई अच्छी बात नहीं है
फूलों से गुलदान सजाना कोई अच्छी बात नहीं है

दिन में पीना और पिलाना कोई अच्छी बात नहीं है
सूरज रहते जाम उठाना कोई अच्छी बात नहीं है

मुर्गे को टेबल पर सजाना कोई अच्छी बात नहीं है
पेट को कब्रिस्तान बनाना कोई अच्छी बात नहीं है

ना-कद्रों को शे'र सुनाना कोई अच्छी बात नहीं है
भैंस के आगे बीन बजाना कोई अच्छी बात नहीं है ||
                                -राजेन्द्रनाथ 'रहबर'

Monday, June 15, 2015

दहेज़ एक अभिशाप

उस रोने कि आवज से हुई,
चारो तरफ़ हंसी |
बाकी सब हैं खुश ओर
वो एक खडा है दु:खी ||1||

सोच रहा है
कैसे करुंगा अब मैं,
व्यवस्था इतने रुपयो की |
कैसे करुंगा अब मैं,
मांग उनकी पूरी ||2||

जोड तोड कर करवा दी उसने ,
अपनी बेटी की पढाई पूरी |
फ़िर सोचा अब तो है इसका,
विवाह भी तो जरूरी ||3||

और एक अच्छे से घर में ,
करवा दिया उसका रिश्ता |
नही जनता था बेचरा ,
उनके दिलों की कटुता ||4||

और तब ससुर जी बोले हम तो,
लेंगे नकदी गहने कार ||
बताओ आप क्या कहते हो,
इसको अभी बाकी है रिश्ते चार ||5||

गोल्ड देना साथ में,
ओर देना जावहरात ||
ले जाएंगे वापस वरना,
इस घर से बारात ||6||

पिता बोला सुनो समधी जी,
कृपया समझो हमारे हालात ||
सुन्दर है बेटी और,
सुन्दर है उस कै ख्यालात ||7||

घर को स्वर्ग बना देगी,
और खूब करेगी सेवा ||
लक्ष्मी बन क रहेगी वो,
धन भगवान खूब देगा ||8||

ससुर बोला लगाई है हमने,
अपने लडके की बोली ||
अब वही करेगा शादी इस से,
जो भरेगा झोली ||9||

उठ कर चले गये वो वहां से,
उनको रोता छोड़ ||
सब कुछ साफ़ हो गया था अब तो,
उन के मन का चोर||10||

अगर करवा देता है,
उनकी वो सगाई ||
याद आती है पडोस कि तब,
एक बहू ने थी फ़ांसी लगाई ||11||

नही कराता तो समाज़ मैं क्या,
उसका नाम रहेगा ||
क्या वो इस समाज़ में रहेगा,
या फ़िर नही रहेगा ||12||

सब कुछ है आसान और देखो,
कुछ भी तो आसान नहीं ||
खुद ही सोचो और देखो क्या
ये है अधूरा ज्ञान नही ||1३||

इन टूटे नियम कानूनों से |
क्या इज्ज़त बड़ सकती है ||
ये सोचना इस काम से क्या |
दहेज प्रथा हट सकती है ||1४||

-गोपाल कृष्णा चौहान 

लघुकथा

फेसबुक

नीलू ने शिकायती अंदाज में प्रिया से कहा-"यार! तुमने कल रिप्लाई नहीं किया, मैं वेट करती रही?"
प्रिया ने हँसकर जवाब दिया-"यार नीलू! तू तो जानती ही है कि मेरी मम्मा ओल्ड फैशन की लेड़ी हैं। अगर मोबाइल हाथ में देख लेती हैं तो सारा घर सिर पर उठा लेती हैं इसलिए मैं छुपकर चलाती हूँ।"
नीलू बोली-"चल झूठी कहीं की, मेरे घर वाले तो कुछ नहीं कहते। मैं तो बिंदास यूज करती हूँ।"
प्रिया धीरे से बोली-"तेरी बात और है, मैं जब मम्मा को देखती हूँ तो मोबाइल रखकर ऐसे बैठ जाती हूँ जैसे पढ़ रही हूँ। उनके इधर-उधर होते ही फिर से फेसबुक चालू हो जाता है।"
दोनों हँसकर अपनी-अपनी कक्षाओं में चली गईं।

-पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'

छंद-गीत

पीर पानी हो गयी है,
क्या करुँ मैं जिन्दगी ?

आँख में मेरे घनी सी,
हो गयी है क्यों नमी?
सोचता हूँ साधना में-
रह गयी है क्या कमी ?
मीत तेरी प्रीति में ही,
फूल ख्वाबों के सजा,
रो रही है सादगी,
कैसे वरूँ मैं जिन्दगी ?

पीर पानी हो गयी है,
क्या करूँ मैं जिन्दगी ?

यूँ सँजोना क्यों पड़ा है,
प्राण कोने में मुझे ।
हो दुखी है क्यों चली,
प्रीति रोने को तुझे ।
ले अँधेरा सो रहा है,
दीप तेरी रात का ।
भावनाएं जागती-
आहें भरूँ मैं जिन्दगी ।

पीर पानी हो गयी है,
क्या करूँ मैं जिन्दगी ?

भोर में आ के कहीं से,
छू लिया तू ने सही ।
आसमानी गीत तेरा,
गा रही मेरी जमीं ।
ले सितारा भोर में भी,
चाँद साथी जागता है,
प्राण में ही है सुधा-
कैसे मरूँ मैं जिन्दगी ?

पीर पानी हो गयी है,
क्या करूँ मैं जिन्दगी ?

-शिव नारायण यादव "सारथी"
ग्राम-देवारा हरख पूरा
जिला-आजमगढ़ (उ.प्र.)

दोहे - लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला

करते शब्द प्रहार 

प्रेम पूर्ण व्यवहार से, बढ़ता प्यार अपार|
मधुर वचन से आदमी, जीत सके संसार ||

शब्दों के क्या अर्थ हैं, पहले करें  विचार|
संबंधों की डोर पर, करते शब्द प्रहार ||

नैतिकता बेजार है, भारी अब बाजार|
लेन-देन हावी हुआ, कमतर है व्यवहार ||

घोर प्रदूषण खा रहा, उगते सुंदर फूल|
मानवता की राह में, बिछते देखे शूल ||

जीवों का आदर करें, प्रेम पूर्ण व्यवहार|
याद रहेंगे कृत्य ही, छोड़ें जब संसार ||

कड़वी हो सच्चाइयाँ, पर अच्छा बर्ताव|
गाँठ कभी बाँधे नहीं, मन में रख दुर्भाव ||

नेता जब करने लगें, सबसे सद्व्यहार|
राम राज्य की कल्पना,तब होगी साकार ||

गुरु चेले के बीच में, बना रहे सद्भाव|
सदाचार की सीख से, आता आदर भाव ||

संतोषी मन भाव से, करे ह्रदय को तृप्त|
इच्छाएं बढती रहें, रहता मन संतप्त ||

                      -लक्ष्मण रामानुज लडीवाला, जयपुर 

Sunday, June 14, 2015

तमाचा

नवनिर्मित नेकलस अपने सुंदर रंग-रूप पर खूब रीझा और उसके पास थकी-हारी पड़ी हथौड़ी को चिढाते हुए बड़ी तिक्तता से कहने लगा-"तुम बहुत भद्दी हो| मेरे से दूर हट जाओ|"
"लेकिन तुम यह क्यों भूलते हो] तुम्हारा यह सुंदर बदन मेरी ही चोटों की परिणति है?" हथौड़ी ने बड़ी अहमियत से नेकलस की बात का प्रतिवाद किया|
-रत्नकुमार सांभरिया, जयपुर 

'कुण्डलिया संचयन' का प्रकाशन

आधुनिक छंद मुक्त कविता के दौर में प्राचीन भारतीय छंदों का चलन जैसे बीते युग की बात हो चला था| ऐसे में प्राचीन भारतीय छंदों को पुनर्जीवन प्रदान कर उन्हें पुनर्स्थापित करने में कई साहित्यकार बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं| त्रिलोक सिंह ठकुरेला सुपरिचित कुण्डलियाकार हैं। इन्होंने कुण्डलिया छंद के उन्नयन के लिए 'कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर' और 'कुण्डलिया-कानन' का सम्पादन किया है। अब श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला द्वारा सम्पादित तीसरा कुण्डलिया संकलन 'कुण्डलिया संचयन' निकट भविष्य में साहित्यजगत के समक्ष होगा | कुण्डलिया संकलन 'कुण्डलिया संचयन' में सर्वश्री अशोक कुमार रक्ताले , डा.जगन्नाथ प्रसाद बघेल , डा.ज्योत्स्ना शर्मा ,परमजीत कौर 'रीत' ,डा. प्रदीप शुक्ल , महेंद्र कुमार वर्मा ,राजेंद्र बहादुर सिंह 'राजन' ,राजेश प्रभाकर , शिवानंद सिंह 'सहयोगी' , शून्य आकांक्षी , साधना ठकुरेला , हातिम जावेद , हीरा प्रसाद 'हरेंद्र' और त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुण्डलियां संकलित हैं|

रँग जीवन हैं कितने

सुख अनंत मन की सीमा में, 
दुख के क्षण हैं कितने ? 
अभिलाषा आकाश विषद है, 
है प्रकाश से भरा गगन. 
रोक सकेंगे बादल कितना, 
किरणों का अवनि अवतरण.
चपला चीर रही हिय घन का, 
तम के घन हैं कितने ? 
दुख के क्षण हैं कितने ? 

काल-चक्र चल रहा निरंतर, 
निशा-दिवस आते जाते, 
बारिश सर्दी गर्मी मौसम, 
नव अनुभव हमें दिलाते. 
है अमृतमयी पावस फुहार, 
जल प्लावन हैं कितने ? 
दुख के क्षण हैं कितने ?
 
अनजानों की ठोकर सह लें, 
क्षम्य नहीं आपस में भूल. 
ये मानव रिश्ते भी क्या हैं, 
आज फूल कल बनते शूल. 
कभी मलय से सौम्य सुगन्धित, 
दग्ध अगन हैं कितने ? 
दुख के क्षण हैं कितने ? 

छल फरेब को कैसे मापें, 
कौन सान कसें ईमान. 
निर्वासित क्यों शौर्य वर्यता, 
क्यों कुंठित हो रहे ज्ञान. 
आदर्शों की रसवंती में, 
कुत्सित्जन हैं कितने ? 
दुख के क्षण हैं कितने ? 

स्वर्ग-नर्क सब यहीं धरा पर, 
अपने कर्मों की छाया. 
सुख-दुख में परिमार्जन करना, 
लोभ-मोह मन की माया. 
विस्तृत होते इन्द्रधनुष से, 
रँग जीवन हैं कितने ? 

सुख अनंत मन की सीमा में, 
दुख के क्षण हैं कितने ?
                                    -हरिवल्लभ शर्मा

Saturday, June 13, 2015

गीत -श्वेता राय

जेठ की तपती छाया भी लगती मुझको मधुमास प्रिये!
होते जब तुम पास प्रिये!

सूनी-सूनी दुपहरिया में
नयन जोहते तेरी बाट
संझा में होकर के बेकल
भटके सुधियाँ घाट-घाट
पछुआ भी लहरा कर भरती फागुन के रंग रास प्रिये!
होते जब तुम पास प्रिये!

चंपा चमेली की खुशबू से
साँसे रहती पगी मेरी
रात चाँद अकुलाहट से
रहती आँखे जगी मेरी
आवारा बादल दे जाते सावन का आभास प्रिये!
होते जब तुम पास प्रिये!

भोर अरुणिमा का सूरज आ
कण-कण में जब ताप भरे
डाल-डाल तब गाकर कोयल
मन के सब संताप हरे
चिड़ियों की चह-चह बिखराती अधरों पर मधु हास प्रिये!
होते जब तुम पास प्रिये!

                                                                                     -श्वेता राय 

ग़ज़ल- कालीचरण सिंह राजपूत

बनाओ मत खुदा उसको उसे इंसान रहने दो।
समुन्दर से जुदा क़तरे की हर पहचान रहने दो।

समझनी ही नहीं मुझको ये मज़हब ज़ात की बातें,
बनो तुम शौक से वाइज़ मुझे नादान रहने दो।

हर इक रस्ते की मंज़िल हो ज़रूरी तो नहीं यारो,
कि कुछ रस्ते तुम अपनी जीस्त के अनजान रहने दो।

कभी दिल आश्ना थे हम भरम इतना रहे बाक़ी,
अभी होठों पे तुम अपने ज़रा मुस्कान रहने दो।

लगी जब आग घर में तो कहा मुझसे बुज़ुर्गों ने,
उठा लो हाथ में गीता सभी सामान रहने दो।

क़सम खाकर ज़रूरी तो नहीं वो सच ही बोलेगा,
तो फिर गीता कुर'आं अल्लाह और भगवान रहने दो।

-कालीचरण सिंह राजपूत 
पता- नरैनी जिला--बांदा ( उत्तर प्रदेश )
मोबा---09721903281