कविता को प्राण और कवि का प्राण सयुज और सरवा होते हैं। कविता का प्राण दृष्टा होता है और कवि का प्राण भोक्ता होता है। रस की महायात्रा के पथ का निर्माण कल्पना धारणा विचारणा और शैली करती है। इस यात्रा में शब्द जो कुछ कहते हैं वह सुनाई नहीं देता, दिखाई देता है। इसलिए कविता के शब्द नि:शब्द हो जाते हैं। जहाँ पर शब्द की यात्रा नि:शब्द हो जाती है, मात्र ध्वन्यात्मक व्यंजना शेष रह जाती है, ध्वनि विसर्जित हो जाती है। नि:शब्द ध्वनि की गूँज बड़ी खनकभरी होती है। दोहाकार श्री सतीश गुप्त ने नि:शब्द को परिभाषित करते हुए भूमिका भाग में बहुत कुछ लिखा है-मु_ी में आक्रोश है, चिन्तन मदहोश है, मौन आवाज़ें है, ठनी तकरार है। चटके संवाद हैं, चुप्पी है, दरार है, स्वय की तलाश है, सांस आस-पास है। गम के रहने को तन्हाई का गाँव है, ज़ख्मों की ज़ाज़म है, दर्दों की छाँव है। पूजा की कोठरी है, वाणी की पुकार है, भक्तिमयी प्रार्थना है, ईश्वर का द्वार है। दु:खों की रेत पर, सुखों का नीर है, सुख के कुबेर हैं, दुख के कबीर हैं।
वेद में छंद को पाद कहा गया है। जिस तरह द्विपद पुरुष होता है उसी तरह दोहा भी द्विपद होता है। पुरुष अपनी पौरुषमयी वाणी से खरी वाणी कहता है। इसीलिए कवि पुरुष होता है और दोहा लिखने वाला शलाका पुरुष। श्री गुप्त शलाका पुरुष हैं। इन्होंने दोहावली की ही रचना नहीं की, अपितु इससे पूर्व संपादन कला में दक्ष श्री गुप्त ने अनन्तिम का संपादन करते हुए दोहा विशेषांक प्रकाशित करके अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है। दोहा में दो का अर्थ स्पष्ट है-दो पद। हा का अर्थ है नष्ट होना। अर्थात विलीन हो जाना। दूसरा पद पहले में विलीन हो जाए तब दोहा बनता है।
शब्द हुए नि:शब्द का दोहाकार अपना विचार प्रस्तुत करते हुए, पहले पद में अपने विचारों को शब्दों में प्रस्तुत करता है-जब से आँखों में बसे, सपने आँसू आस। दूसरे पद में वह अप्रस्तुत कल्पना को इस शैली के साथ सहेज रहा है कि शब्द नि:शब्द हो रहे हैं तथा दोहा पूर्ण हो रहा है-शब्दों में भी आ बसे, अर्थ, नाद और श्वास। शब्द हुए नि:शब्द ग्रन्थ के प्रथम पृष्ठ पर समर्पण स्वरूप एक दोहा लिखकर सहृदय सामान्य का दोहाकार ने अचम्भित कर दिया है-
जीवन के अन्तिम मनन, लिखो वसीयत एक।
इस जीवन के बाद भी, रहे मुहब्बत नेक।
वस्तुत: शब्द हुए नि:शब्द की रसोत्कर्षी चेतना, संवेदना के मौलिक अभिव्यंजन का प्रस्तुतीकरण है। इसमें वेदना, आँसू, व्यथा और अवसाद के साथ मानवतावादी चिन्तन सर्वोपरि दीप्तिमान हो उठा है। श्री गुप्त के कवि कर्म-कौशल की प्रवीणता पर उन्हें मेरी बधाई है। उनकी लेखनी निरन्तर चमत्कार प्राण रसोत्कर्ष के पथ पर अग्रसर रहे यही सारस्वत शुभकामना।
जीवन के अन्तिम मनन, लिखो वसीयत एक।
इस जीवन के बाद भी, रहे मुहब्बत नेक।
वस्तुत: शब्द हुए नि:शब्द की रसोत्कर्षी चेतना, संवेदना के मौलिक अभिव्यंजन का प्रस्तुतीकरण है। इसमें वेदना, आँसू, व्यथा और अवसाद के साथ मानवतावादी चिन्तन सर्वोपरि दीप्तिमान हो उठा है। श्री गुप्त के कवि कर्म-कौशल की प्रवीणता पर उन्हें मेरी बधाई है। उनकी लेखनी निरन्तर चमत्कार प्राण रसोत्कर्ष के पथ पर अग्रसर रहे यही सारस्वत शुभकामना।