Tuesday, February 24, 2015

संवेदना के मौलिक अभिव्यंजन का प्रस्तुतीकरण- शब्द हुए निशब्द



कविता को प्राण और कवि का प्राण सयुज और सरवा होते हैं। कविता का प्राण दृष्टा होता है और कवि का प्राण भोक्ता होता है। रस की महायात्रा के पथ का निर्माण कल्पना धारणा विचारणा और शैली करती है। इस यात्रा में शब्द जो कुछ कहते हैं वह सुनाई नहीं देता, दिखाई देता है। इसलिए कविता के शब्द नि:शब्द हो जाते हैं। जहाँ पर शब्द की यात्रा नि:शब्द हो जाती है, मात्र ध्वन्यात्मक व्यंजना शेष रह जाती है, ध्वनि विसर्जित हो जाती है। नि:शब्द ध्वनि की गूँज बड़ी खनकभरी होती है। दोहाकार श्री सतीश गुप्त ने नि:शब्द को परिभाषित करते हुए भूमिका भाग में बहुत कुछ लिखा है-मु_ी में आक्रोश है, चिन्तन मदहोश है, मौन आवाज़ें है, ठनी तकरार है। चटके संवाद हैं, चुप्पी है, दरार है, स्वय की तलाश है, सांस आस-पास है। गम के रहने को तन्हाई का गाँव है, ज़ख्मों की ज़ाज़म है, दर्दों की छाँव है। पूजा की कोठरी है, वाणी की पुकार है, भक्तिमयी प्रार्थना है, ईश्वर का द्वार है। दु:खों की रेत पर, सुखों का नीर है, सुख के कुबेर हैं, दुख के कबीर हैं।
वेद में छंद को पाद कहा गया है। जिस तरह द्विपद पुरुष होता है उसी तरह दोहा भी द्विपद होता है। पुरुष अपनी पौरुषमयी वाणी से खरी वाणी कहता है। इसीलिए कवि पुरुष होता है और दोहा लिखने वाला शलाका पुरुष। श्री गुप्त शलाका पुरुष हैं। इन्होंने दोहावली की ही रचना नहीं की, अपितु इससे पूर्व संपादन कला में दक्ष श्री गुप्त ने अनन्तिम का संपादन करते हुए दोहा विशेषांक प्रकाशित करके अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है। दोहा में दो का अर्थ स्पष्ट है-दो पद। हा का अर्थ है नष्ट होना। अर्थात विलीन हो जाना। दूसरा पद पहले में विलीन हो जाए तब दोहा बनता है। 
शब्द हुए नि:शब्द का दोहाकार अपना विचार प्रस्तुत करते हुए, पहले पद में अपने विचारों को शब्दों में प्रस्तुत करता है-जब से आँखों में बसे, सपने आँसू आस। दूसरे पद में वह अप्रस्तुत कल्पना को इस शैली के साथ सहेज रहा है कि शब्द नि:शब्द हो रहे हैं तथा दोहा पूर्ण हो रहा है-शब्दों में भी आ बसे, अर्थ, नाद और श्वास। शब्द हुए नि:शब्द ग्रन्थ के प्रथम पृष्ठ पर समर्पण स्वरूप एक दोहा लिखकर सहृदय सामान्य का दोहाकार ने अचम्भित कर दिया है-
जीवन के अन्तिम मनन, लिखो वसीयत एक।
इस जीवन के बाद भी, रहे मुहब्बत नेक।

वस्तुत: शब्द हुए नि:शब्द की रसोत्कर्षी चेतना, संवेदना के मौलिक अभिव्यंजन का प्रस्तुतीकरण है। इसमें वेदना, आँसू, व्यथा और अवसाद के साथ मानवतावादी चिन्तन सर्वोपरि दीप्तिमान हो उठा है। श्री गुप्त के कवि कर्म-कौशल की प्रवीणता पर उन्हें मेरी बधाई है। उनकी लेखनी निरन्तर चमत्कार प्राण रसोत्कर्ष के पथ पर अग्रसर रहे यही सारस्वत शुभकामना।

-                                                                                -डॉ.रामकृष्ण शर्मा, कानपुर


Sunday, February 22, 2015

एक और अरण्य काल : समकालिक नवगीतों का कलश


हर युग का साहित्य अपने काल की व्यथा-कथाओं, प्रयासों, परिवर्तनों और उपलब्धियों का दर्पण होता है. गद्य में विस्तार और पद्य में संकेत में मानव की जिजीविषा स्थान पाती है. टकसाली हिंदी ने अभिव्यक्ति को खरापन और स्पष्टता दी है. नवगीत में कहन को सरस, सरल, बोधगम्य, संप्रेषणीय, मारक और बेधक बनाया है. वर्तमान नवगीत के शिखर हस्ताक्षर निर्मल शुक्ल का विवेच्य नवगीत संग्रह एक और अरण्य काल संग्रह मात्र नहीं अपितु दस्तावेज है जिसका वैशिष्ट्य उसका युगबोध है. स्तवन, प्रथा, कथा तथा व्यथा शीर्षक चार खण्डों में विभक्त यह संग्रह विरासत ग्रहण करने से विरासत सौंपने तक की शब्द-यात्रा है.
स्तवन के अंतर्गत शारद वंदना में नवगीतकार अपने नाम के अनुरूप निर्मलता और शुक्लता पाने की आकांक्षा 'मनुजता की धर्मिता को / विश्वजयनी कीजिए' तथा 'शिल्पिता की संहिता को / दिक्विजयिनी कीजिए' कहकर व्यक्त करता है. आत्मशोधी-उत्सवधर्मी भारतीय संस्कृति के पारम्परिक मूल्यों के अनुरूप कवि युग में शिवत्व और गौरता की कामना करता है. नवगीत को विसंगति और वैषम्य तक सीमित मानने की अवधारणा के पोषक यहाँ एक गुरु-गंभीर सूत्र ग्रहण कर सकते हैं: शुभ्र करिए देश की युग-बोध विग्रह-चेतना परिष्कृत, शिव हो समय की कुल मलिन संवेदना शब्द के अनुराग में बसिये उतरिए रंध्र में नव-सृजन का मांगलिक उल्लास भरिए छंद में संग्रह का प्रथा खंड चौदह नवगीत समाहित किये है. अंधानुकरण वृत्ति पर कवि की सटीक टिप्पणी कम शब्दों में बहुत कुछ कहती है. 'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है'.
जनगणना में लड़कों की तुलना में कम लड़कियाँ होने और सुदूर से लड़कियाँ लाकर ब्याह करने की ख़बरों के बीच सजग कवि अपना भिन्न आकलन प्रस्तुत करता है: 'बेटियाँ हैं वर नहीं हैं / श्याम को नेकर नहीं है / योग से संयोग से भी / बस गुजर है घर नहीं है.'
शुक्ल जी पारिस्थितिक औपनिषदिक परम्परानुसार वैषम्य को इंगित मात्र करते हैं, विस्तार में नहीं जाते. इससे नवगीतीय आकारगत संक्षिप्तता के साथ पाठक / श्रोता को अपने अनुसार सोचने - व्याख्या करने का अवसर मिलता है और उसकी रुचि बनी रहती है. 'रेत की भाषा / नहीं समझी लहर' में संवादहीनता, 'पूछकर किस्सा सुनहरा / उठ गया आयोग बहरा' में अनिर्णय, 'घिसे हुए तलुओं से / दिखते हैं घाव' में आम जन की व्यथा, 'पाला है बन्दर-बाँटों से / ऐसे में प्रतिवाद करें क्या ' में अनुदान देने की कुनीति, 'सुर्ख हो गयी धवल चाँदनी / लेकिन चीख-पुकार नहीं है' में एक के प्रताड़ित होने पर अन्यों का मौन, 'आज दबे हैं कोरों में ही / छींटे छलके नीर के' में निशब्द व्यथा, 'कौंधते खोते रहे / संवाद स्वर' में असफल जनांदोलन, 'मीठी नींद सुला देने के / मंतर सब बेकार' में आश्वासनों-वायदों के बाद भी चुनावी पराजय, 'ठूंठ सा बैठा / निसुग्गा / पोथियों का संविधान' में संवैधानिक प्रावधानों की लगातार अनदेखी और व्यर्थता, 'छाँव रहे माँगते / अलसाये खेत' में राहत चाहता दीन जन, 'प्यास तो है ही / मगर, उल्लास / बहुतेरा पड़ा है' में अभावों के बाद भी जन-मन में व्याप्त आशावाद, 'जाने कब तक पढ़ी जाएगी / बंद लिफाफा बनी ज़िंदगी' में अब तक न सुधरने के बाद भी कभी न कभी परिस्थितियाँ सुधरने का आशावाद, 'हो गया मुश्किल बहुत / अब पक्षियों से बात करना' में प्रकृति से दूर होता मनुष्य जीवन, 'चेतना के नवल / अनुसंधान जोड़ो / हो सके तो' में नव निर्माण का सन्देश, 'वटवृक्षों की जिम्मेदारी / कुल रह गयी धरी' में अनुत्तरदायित्वपूर्ण नेतृत्व के इंगित सहज ही दृष्टव्य हैं.
शुक्ल जी ने इस संग्रह के गीतों में कुछ नवीन, कुछ अप्रचलित भाषिक प्रयोग किये हैं. ऐसे प्रयोग अटपटे प्रतीत होते हैं किन्तु इनसे ही भाषिक विकास की पगडंडियां बनती हैं. 'दाना-पानी / सारा तीत हुआ', 'ठूंठ सा बैठा निसुग्गा', ''बच्चों के संग धौल-धकेला आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे भाषा में लालित्य वृद्धि हुई है. 'छीन लिया मेघों की / वर्षायी प्यास' और 'बीन लिया दानों की / दूधिया मिठास' में 'लिया' के स्थान पर 'ली' का प्रयोग संभवतः अधिक उपयुक्त होता। 'दीवारों के कान होते हैं' लोकोक्ति को शुक्ल जी ने परिवर्तित कर 'दरवाजों के कान' प्रयोग किया है. विचारणीय है की दीवार ठोस होती है जिससे सामान्यतः कोई चीज पार नहीं हो पाती किन्तु आवाज एक और से दूसरी ओर चली जाती है. मज़रूह सुल्तानपुरी कहते हैं: 'रोक सकता है हमें ज़िन्दाने बला क्या मज़रुह / हम तो आवाज़ हैं दीवार से भी छन जाते हैं'. इसलिए दीवारों के कान होने की लोकोक्ति बनी किन्तु दरवाज़े से तो कोई भी इस पार से उस पार जा सकता है. अतः, 'दरवाजों के कान' प्रयोग सही प्रतीत नहीं होता। ऐसी ही एक त्रुटि 'पेड़ कटे क्या, सपने टूटे / जंगल हो गये रेत' में है. नदी के जल प्रवाह में लुढ़कते-टकराते-टूटते पत्थरों से रेत के कण बनते हैं, जंगल कभी रेत नहीं होता. जंगल कटने पर बची लकड़ी या जड़ें मिट्टी बन जाती हैं.उत्तम कागज़ और बँधाई, आकर्षक आवरण, स्पष्ट मुद्रण और उत्तम रचनाओं की इस केसरी खीर में कुछ मुद्रण त्रुटियाँ हुये (हुए), ढूढ़ते (ढूँढ़ते), तस्में (तस्मे), सुनों (सुनो), कौतुहल (कौतूहल) कंकर की तरह हैं.शुक्ल जी के ये नवगीत परंपरा से प्राप्त मूल्यों के प्रति संघर्ष की सनातन भावना को पोषित करते हैं: 'मैं गगन में भी / धरा का / घर बसाना चाहता हूँ' का उद्घोष करने के पूर्व पारिस्थितिक वैषम्य को सामने लाते हैं. वे प्रकृति के विरूपण से चिंतित हैं: 'धुंआ मन्त्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राण वायु का राग / रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान' में कवि प्रदूषण ही नहीं उसका कारण और दुष्प्रभाव भी इंगित करता है.लोक प्रचलित रीतियों के प्रति अंधे-विश्वास को पलटा हुआ ठगा ही नहीं जाता, मिट भी जाता है. शुक्ल जी इस त्रासदी को अपने ही अंदाज़ में बयान करते हैं: 'बस प्रथाओं में रहो उलझे / यहाँ ऐसी प्रथा है पुतलियाँ कितना कहाँ / इंगित करेंगी यह व्यथा है
सिलसिले / स्वीकार-अस्वीकार के / गुनते हुए ही उंगलियाँ घिसती रही हैं / उम्र भर / इतना हुआ बस 'इतना हुआ बस' का प्रयोग कर कवि ने विसंगति वर्णन में चुटीले व्यंग्य को घोल दिया है.'आँधियाँ आने को हैं' शीर्षक नवगीत में शुक्ल जी व्यवस्थापकों को स्पष्ट चेतावनी देते हैं: 'मस्तकों पर बल खिंचे हैं / मुट्ठियों के तल भिंचे हैं अंततः / है एक लम्बे मौन की / बस जी हुजूरी काठ होते स्वर / अचानक / खीझकर कुछ बड़बड़ाये आँधियाँ आने को हैं'
क़र्ज़ की मार झेलते और आत्महत्या करने अटक को विवश होते गरीबों की व्यथा कथा 'अन्नपूर्णा की किरपा' में वर्णित है: 'बिटिया भर का दो ठो छल्ला / उस पर साहूकार सूद गिनाकर छीन ले गया / सारा साज-सिंगार मान-मनौव्वल / टोना-टुटका / सब विपरीत हुआ'
विश्व की प्राचीनतम संस्कृति से समृद्ध देश के सबसे बड़ा बाज़ार बन जाने की त्रासदी पर शुक्ल जी की प्रतिक्रिया 'बड़ा गर्म बाज़ार' शीर्षक नवगीत में अपने हो अंदाज़ में व्यक्त हुई है: बड़ा गर्म बाज़ार लगे बस / औने-पौने दाम निर्लज्जों की सांठ-गांठ में / डूबा कुल का नाम 'अलसाये खेत'शीर्षक नवगीत में प्रकृति के सौंदर्य से अभिभूत नवगीतकार की शब्द सामर्थ्य और शब्द चित्रण और चिंता असाधारण है: 'सूर्य उत्तरायण की / बेसर से झाँके मंजरियों ने करतल / आँचल से ढाँके  शीतलता पल-छीन में / होती अनिकेत . लपटों में सनी-बुझी / सन-सन बयारें
जीव-जन्तु. पादप, जल / प्राकृत से हारे सोख गये अधरों के / स्वर कुल समवेत'
सारतः इन नवगीतों का बैम्बिक विधान, शैल्पिक चारुत्व, भाषिक सम्प्रेषणीयता, सटीक शब्द-यन और लयात्मक प्रवाह इन्हें बारम्बार पढ़ने प्रेरित करता है. श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार कुमार रवीन्द्र ने ठीक ही लिखा है: 'समग्रतः निर्मल शुक्ल का यह संग्रह गीत की उन भंगिमाओं को प्रस्तुत करता है जिन्हें नवगीत की संज्ञा से परिभाषित किया जाता रहा है। प्रयोगधर्मी बिम्बों का संयोजन भी इन गीतों को नवगीत बनाता है। अस्तु, इन्हें नवगीत मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है। जैसा मैं पहले भी कह चुका हूँ कि इनकी जटिल संरचना एवं भाषिक वैशिष्ट्य इन्हें तमाम अन्य नवगीतकारों की रचनाओं से अलगाते हैं। निर्मल शुक्ल का यह रचना संसार हमे उलझाता है, मथता है और अंततः विचलित कर जाता है। यही इनकी विशिष्ट उपलब्धि है।'
वस्तुतः यह नवगीत संग्रह नव रचनाकारों के लिए पाठ्यपुस्तक की तरह है. इसे पढ़-समझ कर नवगीत की समस्त विशेषताओं को आत्मसात किया जा सकता है.

संजीव वर्मा ‘सलिल’

[कृति विवरण: एक और अरण्य काल, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी लैमिनेटेड जैकेटयुक्त सजिल्द, पृष्ठ ७२, १५०/-, उत्तरायण प्रकाशन लखनऊ]



Saturday, February 21, 2015

धूप-छाम की ढ़ाल़, जाण दुख-सुख का जोड़ा


एक दोहा और एक रोला के मेल से बने छह चरणों का मात्रिक छंद कुंडलिया का नाम आते ही 'कह गिरधर कविरायÓ अनायास जुबान पर आ जाता है। शिल्प-सौष्ठव की कसावट इसे छंद अनुशासन से ही मिलती है। गिरधर जी के बाद कुण्डलीकार ज्यादा चर्चित नहीं हुए तथा कुंडलिया छंद भी हासिये पर ही रहा किंतु अब ऐसा नहीं है। जिस प्रकार शोध एवं साहित्य की प्रमुख पत्रिका 'बाबू जी का भारतमित्रÓ ने पिछले दिनों पहला कुंडलिया-विशेषांक निकालकर नवप्रयोग किया, उसी प्रकार हरियाणवी भाषा में प्रथम कुंडलिया संग्रह का प्रकाशित होना इस विधा तथा हरियाणवी रचनाधर्मिता के लिए एक नया पड़ाव कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस अनूठी रचनाधर्मिता का श्रेय जाता है पांच हरियाणवी दोहा सतसई लिख चुके लब्धप्रतिष्ठ हरियाणवी रचनाकार हरिकृष्ण द्विवेदी को, जिन्होंने  'धूप छामÓ नामक हरियाणवी कुंडलिया संग्रह से नये आयाम रचे हैं। हरियाणा प्रदेश के कैथल जिले के साहित्यिक ग्राम पाई को हरियाणवी $गज़ल (कंवल हरियाणवी) की बाद अब हरियाणवी कुंडलिया (हरिकृष्ण द्विवेदी) देने का दिव्य संयोग प्राप्त हुआ है।
आलोच्य कृति श्री द्विवेदी की छठी कृति है। इससे पूर्व पांच दोहा सतसइयों के रूप में उनकी पांचों कृतियां बोल बखत के, अमरतबाणी, मसाल, पनघट तथा जनबाणी बेहद चर्चित एवं पुरस्कृत रही हैं। धूप छाम (धूप छांव)  नामक कृति के माध्यम से दोहाकार से कुंडलीकार बने श्री द्विवेदी की 236 कुंडलियां कला, भाव एवं शिल्प की दृष्टि से तो बेजोड़ हैं ही, ये रचनाएं जीवनमूल्यों एवं आध्यात्मक की अनूठी दस्तावेज भी बन पड़ी हैं।
संग्रह की भावभूमि का अंदाजा शीर्षक कुंडलिया से सहज ही लगाया जा सकता है-
जोड़ा जग-मसहूर सै, सुणिये करकै कान।
हार-जीत टोट्टा नफा, जस-अप जस इनसान।
जस-अपजस इनसान, होड़ सै पाप-धरम की।
कह्या करैं बिदवान, लड़ाई ग्यान-भरक की।
गैल जनम के मौत, मिलण के संग बिछोड़ा।
धूप-छाम की ढ़ाल़, जाण दुख-सुख का जोड़ा।
रचनाकार ने सामाजिक विसंगतियो, विद्रुपताओं, विषमताओं, विडम्बनाओं को रेखांकित करते हुए न केवल करारे कटाक्ष किए हैं, लोकसंस्कृति एवं लोकमूल्यों का भावपूर्ण स्मरण करते हुए उन्हें आत्मसात करने का आह्वान भी किया है। ठेठ हरियाणवी शब्दावली, लोकोक्तियों व मुहावरों का प्रयोग तथा विलुप्त होते हरियाणवी शब्दों को सहेजना संग्रह की अन्य विशेषताएं हैं।
छंदशास्त्र एवं संगीत के मर्मज्ञ होने के कारण जहां श्री द्विवेदी की तमाम रचनाओं में शिल्प सौंदर्य प्रभाव छोड़ता है वहीं आध्यात्मिक विचारक होने के चलते संग्रह का भाव एवं कला  पक्ष भी बेहद उज्ज्वल है। हरियाणवी $गज़लकार रिसाल जांगडा ने पुस्तक की भूमिका में उचित ही कहा है कि धूप छाम रचकर श्री द्विवेदी ने हरियाणवी कुंडलिया छंद की कुण्डली लिख दी है।
अनीता पब्लिशिंग हाउस, गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित धूप छाम की छपाई बेहद सुंदर तथा आवरण शीर्षकानुरूप एवं कलात्मक है। कहीं-कहीं प्रुफ की अशुद्धियां अखरती हैं। यह संग्रह हरियाणा साहित्य के लिए एक उपलब्धि से कम नहीं है तथा शोधार्थियों के लिए भी आधार सामग्री का काम करेगा। यह कृति श्री द्विवेदी को कुंडलिया छंद का हरियाणवी जनक के रूप में प्रतिष्ठापित करते हुए-कुंडलिया साहित्य को समृद्ध करेगा-ऐसा विश्वास है।


सत्यवीर नाहडिय़ा
संपर्क सूत्र : 9416711141 
पुस्तक : धूप छाम
लेखक : हरिकृष्ण द्विवेदी
प्रकाशक : अनिता पब्लिशिंग हाउस, गाजियाबाद
मूल्य : 200 रु. पृष्ठ : 95

Friday, February 20, 2015

श्रमसाध्य दस्तावेज है हरिऔध का सौंदर्य चित्रण



बहुआयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धनी लब्धप्रतिष्ठ चर्चित रचनाकारों की बहुआयामी रचनाधर्मिता पर सम्पन्न हुए शोध कार्यों को तो पुस्तकाकार में आना ही चाहिए-इससे एक ओर संबंधित रचनाकार का बहुमुखी परिचय नयी पीढ़ी से होता है वहीं शोध अभियान को भी नयी व्यवहारिक ऊंचाइयां प्राप्त होती हैं। ऐसा ही एक श्रमसाध्य प्रयास है शोधार्थी डा. विजय इंदु के शोध पर आधारित आलोच्यकृति हरिऔध का सौंदर्य चित्रण, जिसमें नवयुग के अग्रदूत एवं मुक्तक के बादशाह कहे जाने वाले यशस्वी रचनाकार हरिऔध की करीब पचास पुस्तकों की विराट रचनाधर्मिता में सौंदर्य चित्रण पक्ष को रेखांकित किया गया है।
शोधार्थी-लेखिका डा. इंदु के शोध, अध्ययन एवं लेखन के प्रति गंभीर जुनून का अंदाजा इस पहलू से लगाया जा सकता है कि वे हिंदी, संस्कृत में पीएचडी के अलावा, नेट, जेआरएफ भी हैं।  अपने शोध गुरु डा. रामसजन पांडेय के प्रेरक मार्गदर्शन में इस शोध कार्य को उन्होंने शोध प्रविधि के तहत छह अध्यायों में बांटा है। प्रथम अध्याय में सौंदर्यबोध की अवधारणा, द्वितीय अध्याय में हरिऔध के सौंदर्यबोध का पृष्ठाधार, तृतीय अध्याय में हरिऔध के साहित्य में मानवीय सौंदर्य, चतुर्थ अध्याय में हरिऔध के साहित्य में असीम का सौंदर्य निरुपण, पांचवें अध्याय में हरिऔध का प्रकृति-परिवेश तथा छठे अध्याय में हरिऔध का अभिव्यक्ति सौंदर्य शामिल किया गया है।
उल्लेखनीय है कि काशी विश्वविद्यालय में दो दशकों तक हिंदी सेवा करने वाले प्रख्यात रचनाकार अयोध्यासिंह उपाध्याय ने अपने काव्यगुरु हरिसुमेर से अभिप्रेरित होकर उनके पर्याय हरिऔध नाम से ब्रजभाषा तथा हिंदी में रचनाधर्मिता के नये आयाम स्थापित किए। मुक्तक, गीत, प्रबंधकाव्य, नाटक, उपन्यास, निबंध, आलोचना, कहानी, बाल साहित्य, गद्य-गीत, आलोचना, ललित साहित्य आदि विभिन्न विधाओं में उन्होंने करीब चार दर्जन रचनाएं दी तथा अपने छह दशक के लेखकीय जीवन की आखिरी सांस तक निरंतर सृजनरत रहे। इनकी रचनाधर्मिता में सौंदर्य-चित्रण का प्रामाणिक सूक्ष्म अध्ययन करते हुए डा. इंदु ने उन्हें प्रियप्रवास जैसी काव्य रचनाधर्मिता के लिए महाकवि, रुक्मिणी परिणय के लिए श्रेष्ठ नाटककार, इतिवृत के लिए प्रेरक निबंधकार बेनस का बांका हेतु सतर्क अनुवादक, कबीर वचनावली हेतु कुशल संपादक, चारु चरितावली हेतु चरित्र लेखक, कृष्ण शतक हेतु ब्रजभाषा के मर्मज्ञ करार दिया है। लेखिका ने उनके समग्र साहित्य में संबंधित विषय के साथ भाषा, छंद, प्रतीक, बिंब, मुहावरे, लोकोक्तियों आदि का भी प्रभावी विवेचन किया है।
युगों-युगों से साहित्य, कला एवं संस्कृति का आधार रहे सौंदर्य के रूप, भाव व कर्म की त्रिवेणी को इस शोध में झरते देखा जा सकता है। कृति सारांश तौर पर शील व कर्म के सौंदर्य से जुड़े मानवीय गुणों शील, संयम, वीरता स्पूर्ति, उत्साह, त्याग, मर्यादा, बलिदान, वीरता, इंद्रिय निग्रह, क्षमा, करुणा का जीवंत चित्रण है।
हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर द्वारा प्रकाशित इस शोध ग्रंथ की छपाई बेहद सुंदर तथा आवरण आकर्षक है। संदर्भ सूचियों से शोधकार्य की गंभीरता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। सूरदास के सौंदर्य पर शोध कर चुकी लेखिका डा. इंदु ने स्कूल शिक्षा विभाग में रहते हुए करीब एक दर्जन शोध पत्र एवं उक्त दो गंभीर शोध अभियान प्रभावी ढ़ंग से सम्पन्न कर शोध साहित्य की सच्ची सेवा की इस श्रमसाध्य कार्य के लिए वे बधाई एवं साधुवाद की पात्र हैं।
सत्यवीर नाहडिय़ा
पुस्तक : हरिऔध का सौंदर्य चित्रण
लेखक : डा. विजय इंदु
प्रकाशक : हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर
मूल्य : 500 रु. पृष्ठ : 319

यथा नाम तथा गुण है प्रेरणा के बोलÓ


संयुक्त-परिवारों के दौर में दादी-नानी कहानी की पर्याय हुआ करती। बालमन पर संस्कारों की अमिट छाप छोडऩे वाली यह कहानी परम्परा अब लुप्त होने के कगार पर है किंतु बाल-साहित्य के माध्यम से हमारे रचनाकार इसी कमी को पूरा करने का प्रयास करते रहे हैं। ऐसा ही प्रेरक प्रयास है आलोच्य कृति 'प्रेरणा के बोलÓ जिसमें रचनाकार शमशेर कोसलिया नरेश ने लोककथानाक एवं नवीन भाव भूमि पर आधारित उन पच्चीस कहानियों को शामिल किया है, जो बाल साहित्य की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
'सबकÓ से प्रारंभ होकर 'गलतफहमीÓ पर सम्पन्न हुआ पच्चीस बाल कहानियों का यह सफर बेहद रोचक एवं प्रेरक है। एक ओर जहां इन रचनाओं में कहानी के सभी मूलतत्व विद्यमान हैं वहीं इनमें लोककथाओं की भावभूमि, बालमनोविज्ञान पर आधारित रचनाधर्मिता इन्हें व्यवहारिक व प्रेरक बनाती है। ये कहानियां बच्चों को रोमांचित करने के साथ उनमें समझ, प्रेरणा, सीख, मेहनत, ईमानदारी जैसे सुसंस्कार भरने की मादा रखती हैं।
संग्रह की अधिकांश कहानियां अपने शीर्षक को चरितार्थ करती हुई संबंधित सीख भी देती हैं जिनमें वफादारी, सही राह, समझदारी, स्वावलंबी विजय, ईमानदारी, दो भाई हिम्मत वाले, समझ से बने वजीर एवं गलतफहमी शामिल हैं। इसके अलावा कहानी मनीष में बहादुरी, जीभ और दांत में सहनशीलता, जमीन में कलश में जीवरक्षा, डाकुओं का सफाया में बहादुरी की सीख मिलती है। धन लोलुप्ता तथा लोभ पर आधारित कहानियां ठगों का सफाया व दो लाल तथा लोक मंगल की कामना व भावना पर आधारित कहानी 'गोली तो थोथी हैÓ अच्छी बन पड़ी हैं। अहीरवाल की चर्चित लोककथा 'टपकले का डरÓ को भी संग्रह में स्थान दिया गया है तथा इसी क्षेत्र के चरखीदादरी, महेन्द्रगढ़, स्याणा, कोटिया, सेहलंग, नाहड़, सीहमा के ऐतिहासिक एवं सामाजिक स्वरूप के साथ सत्य कथाएं भी शामिल की गयी हैं।
आधा दर्जन कृतियों के रचनाकार श्री कोसलिया की यह पुस्तक कई मायनों में उनकी अन्य पुस्तकों से अलग है। सरल-सहज भाषाशैली, आकर्षक आवरण, सुंदर छपाई, जहां इस संग्रह की अन्य विशेषताएं हैं, वहीं संग्रह में वर्तनी की अशुद्धियां तथा रेखाचित्रों का धुंधलापन अखरता है। संग्रह की भूमिका में प्रख्यात बाल साहित्यकार घमंडीलाल अग्रवाल ने उचित ही कहा है कि ग्राम्य परिवेश में रची-बसी ये बाल-कहानियां बाल साहित्य को समृद्ध करेंगी। कुल मिलाकर बाल कहानी विधा में कृति 'प्रेरणा के बोलÓ यथानाम तथा गुण साबित होगी-ऐसी आशा है।

सत्यवीर नाहडिय़ा
                                                  

पुस्तक : प्रेरणा के बोल
लेखक : शमशेर कोसलिया 'नरेशÓ
प्रकाशक : ऋषि उद्दालक प्रकाशन, स्याणा(महेन्द्रगढ़)
मूल्य : 150 रु. पृष्ठ : 104

Wednesday, February 18, 2015

नारी का हृदयस्पर्शी चित्रण-एक चेहरा

कविता मानव हृदय में पल्लवित कोमल विचार है। कवि संवेदनशील विचारों के धनी होते हैं, जब उनका कोमल हृदय किसी घटना या विचार को शाब्दिक स्वरूप प्रदान करता है तो कविता आकार लेने लगती है। कविता मानवीय भावों की सर्वाधिक रसमयी अभिव्यक्ति है। लगभग पचीस वर्षों से अनवरत भक्ति-गीतों की रचना में संलग्न लेखक राजेश प्रभाकर का यह प्रथम कविता संग्रह है-एक चेहरा। इसमें अठ्ठावन कविताएं संकलित हैं और सभी कविताओं का प्रधान विषय नारी आधारित ही है। यूं तो नारी हमारे समाज का एक ऐसा विषय है जिस पर बड़े-बड़े विद्वान बड़े-बड़े विचार, चर्चाएं व लेखन कर चुके हैं। लेखक ने नारी के अस्तित्व व गरिमा पर लयबद्ध कलम चलाई है। उनकी हर कविता सरस व मर्मस्पर्शी है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता’ की परंपरा के पोषक कवि ने नारी के विविध रूपों का सजीव चित्रण अपनी कविता के माध्यम से किया है। नारी के रूप अनगिनत है। वह मां, बेटी, बहन, पुत्री, प्रेमिका, पत्नी सभी रूपों में पुरुष का संबल है। नारी ईश्वर की अनुपम कृति है। लेखक ने अपनी प्रथम रचना में ही इस बात का प्रमाण दिया है :-
शून्यवाद में परिकल्पित
प्रथम तेरी ही अनुभूति
ईश्वर की भी तुम्ही हो लगती
प्रारंभिक एक कृति
मनुष्य के जीवन में यदि कोई उसकी प्रथम शिक्षिका, पथ प्रदर्शिका, शुभचिन्तक है तो वह मां है। लेखक ने अपनी अद्भुत कल्पनाशीलता द्वारा मां के विराट रूप का दिग्दर्शन कविताओं के माध्यम से कराया है। यूं तो लेखक ने नारी के हर रूप पर अपनी लेखनी चलायी है परन्तु मां की ममता पर उनकी लेखनी कुछ अधिक ही सरस, वात्सल्यमयी व भावप्रवण हो उठी है। ‘मां’ पर लिखी उनकी कविताएं गरिमापूर्ण ऊंचाई को छू लेती हैं :-
मां एक शब्द,
शब्दकोश पर भारी है
जीव-प्रकृति-नृविज्ञान में,
ममता सबसे भारी है
मां का अर्थ बताए कौन?
शब्दकोश भी हुआ है मौन!
लेखक ने नारी रूप की अद्भुत व्यंजना की है। उनके काव्य में नारी अपने विराटतम व सुन्दरतम रूप में दृष्टव्य है, वही सृष्टि का आदि और अंत है। ईश्वर के उपरांत ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना यदि कोई है तो वो नारी ही है। नारी सृष्टि का सौंदर्य है :-
करूं कल्पना इस दुनिया की
तुम बिन जब-जब हे नारी
लगती है इक उजड़ी बस्ती
मुझको तो दुनिया सारी
बिन फूलों के जैसे उपवन
बिन सावन के जैसे मधुबन
पर तेरा जीवन एक तपोवन
जिसमे है अर्पण ही अर्पण
लेखक ने बड़ी ही भाव प्रवणता व सहृदयता से कन्या-भ्रूण हत्या के विरोध में भी अपनी कोमल अभिव्यक्ति दी है :-
जब मैं कली बनकर खिल जाउंगी
मां तेरे आंगन को महकाऊंगी
सपने मुझे भी सजाने दे मां
आने से पहले न जाने दे मां
ऐसी पंक्तियां बड़ी मर्मस्पर्शी हैं व कठोर हृदय पर भी आघात करने में सक्षम हैं। इस कविता संग्रह को पढने के उपरांत जयशंकर प्रसाद की अद्भुत कृति का स्मरण हो आता है :-
‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग, पग-तल में,
पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में 77′
लेखक का कोमल हृदय व भाव प्रवणता उनकी कविताओं की भाषा में परिलक्षित होती है। उनका वात्सल्य पक्ष सर्वोत्कृष्ट रहा। प्रेयसी व जीवन संगनी के निरूपण में वियोग श्रृंगार देखने मिलता है। नारी के त्याग, प्रेम, समर्पण, निवेदन, प्रणय के हृदयस्पर्शी चित्रण हैं। कवि की भाषा विषयानुकूल शुद्ध, सरल व परिमार्जित है। उनकी कवितायें जन मानस पर अमित छाप छोड़ेंगी ।
डॉ. रश्मि
०पुस्तक : एक चेहरा
०लेखक : राजेश प्रभाकर
०प्रकाशक : नीला प्रकाशन, नारनौल (हरियाणा)
०पृष्ठ संख्या : 112 ०मूल्य : रुपये 200.
देनिक ट्रिब्यून से साभार