Tuesday, March 31, 2015

त्रिलोक सिंह ठकुरेला के पांच कुंडलिया

करता रहता है समय, सबको ही संकेत।
कुछ उसको पहचानते, पर कुछ रहें अचेत।।
पर कुछ रहें अचेत, बंद कर बुद्धि-झरोझा।
खाते रहते प्राय, वही पग-पग पर धोखा।
ठकुरेला कविराय, मंदमति हर क्षण डरता।
जिसे समय का ज्ञान, वही निज मंगल करता।।

तिनका तिनका कीमती, चिडिय़ा को पहचान।
नीड़ बने तिनका अगर, बढ़ जाता है मान।।
बढ़ जाता है मान, और शोभा बढ़ जाती।
होता नव-उत्कर्ष, जिंदगी हँसती गाती।
ठकुरेला कविराय, सार्थक है श्रम जिनका।
पा उनका सानिध्य, कीमती बनता तिनका।।

महँगाई ने कर दिया, महँगा सब सामान।
तेल, चना, गुड़, बाजरा, गेहूँ, मकई, धान।।
गेहूँ, मकई, धान, दाल, आटा, तरकारी।
कपड़ा और मकान, सभी की कीमत भारी।
ठकुरेला कविराय, डर रहे लोग-लुगाई।
खड़ी हुई मुँह फाड़, बनी सुरसा महँगाई।।

नारी की गाथा वही, यह युग हो कि अतीत।
सदा दर्द सहती रही, सदा रही भयभीत।।
सदा रही भयभीत, द्रोपदी हो या सीता।
मिले विविध संत्रास, दुखों में जीवन बीता।
ठकुरेला कविराय, कहानी कितनी सारी।
सहती आयी हाय, सदा से ही दुख नारी।।
 
गंगा थी जीवन नदी, हर लेती थी पाप।
झेल रही है आजकल, वह भीषण संताप।।
वह भीषण संताप, चिढ़ाते उसको नाले।
है इस जग में कौन, पीर जो उसकी टाले।
ठकुरेला कविराय, चलन है यह बेढंग़ा।
यमुना हुई उदास, बहाए आँसू गंगा।।

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला, आबूरोड़

Monday, March 30, 2015

पतझड़ में मधुमास की तरह



लघुकथाकारों में कृष्णलता यादव एक चिरपरिचित नाम है और इसकी साक्षी हैं उनके द्वारा लिखी गई अनगिनत लघुकथाएं। हालिया प्रकाशित चौथा लघुकथा-संग्रह ‘पतझड़ में मधुमास’ में संकलित लघुकथाओं में आम जीवन से जुड़ा लगभग हर पक्ष अपनी विसंगतियों के साथ-साथ आशा व सकारात्मकता के साथ उपस्थित है। लेखिका में क्षणों को पकड़कर उसकी समीक्षा करनेवाली संवेदनशीलता है जो इन लघुकथाओं में स्पष्ट रूप से उभरती दिखती है। आधुनिकता ने हमारे जीवन और इसकी पद्धति को कहां तक प्रभावित कर डाला है, उसके सशक्त उदाहरण मिलते हैं, ‘पैकेज’, ‘हाइटेक’, ‘ग्लोबलाइजेशन’, ‘घेरे अपने-अपने’ और ‘ममता’ प्रभृति लघुकथाओं में। उदाहरण के लिए ‘आधुनिकता का रंग’ को ले सकते हैं जिसमें शराब पीकर सड़क पर बेसुध पड़े बेटे के बारे में जब हेड कांस्टेबल उसके पिता को फोन पर सूचित करता है तो पिता प्रत्युत्तर में कहता है—‘अजी साहब, यही उम्र है लाइफ को इंज्वाय करने की।’
बच्चों के प्रति संवेदनशीलता के साथ-साथ कृष्णलता महिलाओं और बुजुर्गों की मनःस्थिति पर सूक्ष्म पकड़ रखती हैं। ‘नेह का बंधन’, ‘सयानपत’, ‘बहिष्कार’, ‘समय का दस्तूर’, ‘सोच’, ‘कुशंका’, ‘यही सच है’, ‘अनमोल खजाना’, ‘कथनी’, ‘अमृतकण’, विश्वास-अविश्वास’, ‘पर-उपदेश’, ‘बुढ़ापे की लाज’ सरीखी लघुकथाएं वयोवृद्धों के मन का विभिन्न कोणों से पड़ताल करती हैं। ‘सोच’ की अंतिम पंक्तियां—‘बहन, तुम-सी भाग्यशाली कोई नहीं। तुम जी-जान से नब्बेसाला सास की सेवा करके, घर बैठी पुण्य कमा रही हो। क्या इससे बड़ा कोई तीर्थ हो सकता है?’ महिला की स्वस्थ चिंतनधारा को इंगित करती हैं। वहीं दूसरी ओर ‘कड़वा सच’ नारी-मन की एक स्वार्थपरक छवि को केंद्रित करने में सार्थक रही है। इसी तरह ‘आक्रोश‘ में शोषण के विरुद्ध महिलाओं का संगठन एक आदर्श विद्रोह के रूप में परिलक्षित हुआ है। समाज और परिवार से जुड़े प्रसंग संग्रह की संस्कारगत विशिष्टताएं हैं। बेटी-बेटे का फर्क की मानसिकता ‘कामकाजी का जन्म’, ‘बेटे का धन’ आदि में बखूबी हुआ है। संग्रह की कुछेक लघुकथाओं के थीम पर पहले भी कई लघुकथाएं लिखी जा चुकी हैं। उदाहरणार्थ ‘दिल के अरमां’ और ‘अपनी अपनी मदिरा’ थीम पर वरिष्ठ लघुकथाकार उम्दा लघुकथाएं दे चुके हैं। उनसे तुलना कर अपनी लेखनी क्षमता का लघुकथाकार स्वयं भलीभांति मूल्यांकन कर सकती हैं। बहरहाल लघुकथाओं में सपाटबयानी से बचने का जितना भी प्रयत्न किया जाएगा, रचना उतनी ही सार्थक व परिपक्व बनकर उभरेगी। एक ही थीम पर कुछ अलग-सी लिखी गई लघुकथा का असर कहीं अधिक होता है। और सब कुछ कहने के बजाय लघुकथा स्वयं कहे तो उसकी संप्रेषण-क्षमता कुछ अधिक बढ़ जाती है। संक्षेप में कहा जाय तो कृष्णलता की ये लघुकथाएं सचमुच पतझड़ में मधुमास की ही तरह हैं जो आश्वस्त करती हैं।
-रतन चंद ‘रत्नेश

0पुस्तक : पतझड़ में मधुमास 
0लेखिका : कृष्णलता यादव 
0प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
 0पृष्ठ संख्या : 90 0मूल्य :  रुपये 220.
देनिक ट्रिब्यून से साभार 

Sunday, March 29, 2015

कबीर के दोहे

साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥
जात न पूछो साध की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥
माया मुई न मन मुआ, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा न मुई, कह गए दास कबीर॥
माटी कहे कुम्हार सूँ, तू क्या रौंदे मोय।
इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय॥
लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीक पुरानी पर रहें, शूरा सिंह सपूत ॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडि़त होय ॥
पाहन पूजै हरि मिलैं, तो मैं पूजूं पहार ।
ताते तो चक्की भली, पीस खाय संसार ॥
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥
रात गँवाई सोय के, दिवस गँवाया खाय ।

हीरा जन्म अमोल था, कौड़ी बदले जाय ॥

कुछ प्रसिद दोहे

गोरी सोई सेज पै, मुख पर डारे केस।
चल 'खुसरोघर आपने, रैन भई चहुँ देस।।
                                 -अमीर खुसरो
चार बाँस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान।
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूकै चौहान।।
                                -चन्द बरदाई
अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।
                                -मलूक दास
जो मैं ऐसा जानती, प्रीति किए दुख होय।
नगर ढिंढ़ोरा पीटती, प्रीति न करियो कोय।।
                                -मीरा बाई
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहि।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिट कूद चलि जाहि।।
                                -रहीम
करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान
रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निसान।।
                                -कवि वृन्द
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सौं बिंध्यौ, आगे कौन हवाल।।
                                -बिहारी
सदा सील तुम सरस के, दरस हर तरह खास।
सखा हर तरह सरद के, सरसम तुलसी दास।।
                                -तुलसीदास
जिनके पल्ले धनु बसे, उसका नाम $फकीर।
जिसके हृदय तू बसहिं, ते नर गुणी अहीर।।
                             -गुरुनानक
फूटी आँख विवेक की, लखे न सन्त असन्त।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त॥
              -कबीर 

Saturday, March 28, 2015

दोहा छंद में वर्णिक गणों का महत्व

                दोहा हिन्दी काव्य की एक अचूक, सशक्त लघु छंद विधा है। 24-24 मात्रााओं का दो पंक्तियों वाला यह छंद अपनी प्रभावशीलता, संक्षिप्तता, सशक्त अभिव्यक्ति, प्रांजलता, तीव्र स्मरणशीलता, मार्मिकता आदि तमाम गुणों के कारण प्राचीन काल से काव्य का सर्वाधिक जनप्रिय एवं लोकप्रिय छंद रहा है। 48 मात्राओं में बँधा यह लघु छंद पाठक एवं श्रोता पर अणुबम के समान प्रहार करता है। इसमें अनन्त ऊर्जा का भंडार है। इसका सदुपयोग कोई सच्चा साधक ही कर सकता है। कविवर रहीम ने दोहे की विशेषता में कहा है-
                 दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहि।
                ज्योंं रहीम नट कुंडली, सिमिट कू द चलि जाहि।।
                अर्थात जिस प्रकार एक कुशल नट अपने शरीर को समेटकर एक छोटे से घेरे में कुशलतापूर्वक पार हो जाता है उसी प्रकार एक समर्थ दोहाकार थोड़े से शब्दों में बड़े-बड़े अर्थ को संजोने की सामर्थ्य रखता है।
                दोहे के विषय में वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री चिरंजीत ने कहा है-''24-24 मात्राओं की दो पंक्तियों के दोहे की रचना बड़ी कठिन है। इस पर 'गागर में सागर' की कहावत लागू होती है। सही किस्म के दोहे के लिए भाषा कसी हुई, प्रांजलता, शब्दों की मितव्ययता, कथ्य की संक्षिप्तता एवं सांकेतिकता, वर्णन की चमत्कार पूर्ण अलंकारिकता, अनुभूति की मार्मिकता एंव सूत्र की सूक्तिपरक उद्धरणीयता आवश्यक है।"
                उक्त गुणों से परिपूर्ण दोहा अभिरचन के लिए रचनाकार को निर्धारित माप-दण्ड, मात्रा विन्यास का उचित ज्ञान होना आवश्यक है। वरिष्ठ दोहाकार अशोक अंजुम ने कहा है-''केवल 13-11 के क्रम के साथ 48 मात्राएँ जोड़ लेने से ही दोहे की रचना नहीं होती, उसमें उचित प्रवाह अर्थात रगण, तगण, यगण... का सही सामंजस्य भी आवश्यक है।"
                दोहा मुक्तक काव्य की श्रेणी में आता है और एक लघु मात्रिक छंद है। फिर भी दोहे को सही बुनावट, उचित प्रवाह प्रदान करने के लिए वर्णिक गणों की भूमिका महत्वपूर्ण है। गणों का विश्लेषण करने से पूर्ण गण की रूप-रेखा जानना आवश्यक है। वर्ण और मात्राओं के समूह को गण कहते हैं। गण दो प्रकार के होते हैं। वर्णिक गण और मात्रिक गण। लघु -गुरु के क्रम के विविध परिवर्तनों से वर्णिक गणों की संख्या आठ हो जाती है। तीन वर्णों का एक गण होता है।             

                छंद शास्त्र के आचार्यों ने गणों के संबंध में एक सूत्र बनाया है वह इस प्रकार है- 'यमाताराजभानसलगा'
                दस अक्षर का यह सूत्र है। आठों गणों के एक-एक सांकेतिक अक्षर तथा लघु-गुरु के लिए ल और ग को लेकर इस सूत्र की रचना हुई है। जैसे-यदि आपको यगण का लक्षण और स्वरूप जानना हो तो इस सूत्र के आरम्भ का य तो यगण के नाम के लिए और उसमें माता जोड़ देने से यगण (।ऽऽ) का उदाहरण हो जाता है। इसी क्रम से इसी सूत्र द्वारा आठों गणों के नाम व उदाहरण स्पष्ट हो जाते हैं।
                छंद शास्त्र केे अनुसार मात्रिक गण पाँच प्रकार के होते हैं। इन्हें टगण, ठगण, डगण, ढगण तथा णगण नाम से पुकारा जाता है। टगण दो मात्राओं का, ठगण तीन मात्राओं का, डगण चार मात्राओं का, ढगण पाँच मात्राओं का तथा णगण छह मात्राओं का समुच्च होता है। इन समुच्चयों में लघु-गुरु क्रम बदलने से गण नहीं बदलता। उदाहरण के लिए रहीम और भारत में लघु-गुरु क्रम भिन्न है, परन्तु मात्राएँ दोनों में चार-चार हैं। अत: ये दोनों शब्द मात्रिक गण डगण हैं।
                मात्रिक गणों में लघु-गुरु का उचित मात्रा विन्यास न होने के कारण काव्यशास्त्रीयों व कवियों ने इनका महत्व व उपयोग लगभग नकार दिया है। इन्हीं कारणों से मात्रिक गणों का अस्तित्व चर्चाओं व आलेखों से बहिष्कृत-सा हो गया है। दोहों के अभिरचन में प्रवाह व लय लाने के लिए गणों की महत्वपूर्ण भूमिका है। जैसा कि सर्वविदित है दोहे के पहले और तीसरे चरण में 13-13 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। दूसरे और चौथे चरण का चरणान्त दीर्घ-लघु (ऽ।) से होता है। दोहा मात्रिक छंद होने के बावजूद इसे वर्णिक गणों की विशेष बुनावट से गुजरना पड़ता है। मात्राओं की वांछित संख्या होने पर वर्णिक गणों की विशेष बुनावट के बिना छंद में प्रवाह नहीं आ सकता, फलस्वरूप विकलांगता आ जायेगी। वह छंद दोहा छंद की परिधि से बाहर हो जायेगा। दोहा तो ऐसा छंद है कि इसके किसी भी चरण में जरा-सी भी भूल, मात्रा का कम या अधिक होना, प्रवाह भंग आदि बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है।
                आइये दोहा अभिरचन में प्रवाह व गति प्रदान करने के लिए प्रथम व तृतीय चरण में वर्णिक गणों की विशेष बुनावट अर्थात मात्रा विन्यास का विश्लेषण करते हैं। यहाँ हम वर्णिक गणों के लिए तालिका में दिए गए संकेत य,,त तथा लघु के लिए ल गुरु वर्ण के लिए गा का प्रयोग करेंगे।
                प्रथम व तृतीय चरणों का वर्णिक गणों की दृष्टि से विश्लेषण करने पर ऽ। रूप प्राप्त होते हैं। इन्हें हम निम्न आठ भागों में विभाजित कर सकते हैं-
1.यगण से प्रारम्भ चरण
सूत्र          मात्रिक विन्यास                  उदाहरण                 
ययलगा      ।ऽऽ।ऽऽ।ऽ     बिना जीव की सांस सों, (सार भस्म हो जाय)
यनभल      ।ऽऽ।।।ऽ।।।    वहै प्रीत नहिं रीति वह, (नहीं पाछिलो हेत)
यनर        ।ऽऽ।।।ऽ।ऽ     दया कौन पर कीजिये, (का पर निर्दय होय)
यननगा      ।ऽऽ।।।।।।ऽ    कथा कीरतन कुल विशे, (भव सागर की नाव)
यजस       ।ऽऽ।ऽ।।।ऽ     बिना मान अमृत पिये, (राहु कटायो सीस)
2.मगण से प्रारम्भ चरण
मतलल       ऽऽऽऽऽ।।।     ज्यों-ज्यों भीजे श्याम रंग, (त्यों-त्यों उज्ज्वल होय)
ममलगा      ऽऽऽऽ।।।ऽ     राधा-राधा रटत ही, (सब बाधा कटि जाय)
मसलगा      ऽऽऽ।।ऽ।ऽ     खीरा को मुँह काटिकैै, (मलियत नोन लगाय)
मतगा        ऽऽऽऽऽ।ऽ     यारो यारी छोडिय़े, (वे रहीम अब नाहि)
मनस        ऽऽऽ।।।।।ऽ    माला फेरत जुगभया, (फिरा न मनका फेर)
मसन        ऽऽऽ।।ऽ।।।    सोना, सज्जन, साधुजन, (टूट जुड़ैं सौ बार)
3.तगण से प्रारम्भ चरण
तयलगा       ऽऽ।।ऽऽ।ऽ     मेरी भव बाधा हरो, (राधा नागरि सोइ)
तननगा       ऽऽ।।।।।।।ऽ   पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, (पंडित भया न कोय)
तभनगा       ऽऽ।ऽ।।।।ऽ    माया मरी न मन मरा, (मर-मर गये शरीर)
तरलगा       ऽऽ।ऽ।ऽ।ऽ     माटी कहे कुम्हार सूँ, (तू क्या रौंदे मोय)
तजस        ऽऽ।।ऽ।।।ऽ    ऊँचे कुल का जनमिया, (करणी ऊँच न होय)
तनर         ऽऽ।।।।ऽ।ऽ    ऐसे घट-घट राम हैं, (दुनिया देखे नाहि)
4. रगण से प्रारम्भ चरण
रनभल       ऽ।ऽ।।।ऽ।।।    राम-राम कहि राम कहि, (राहु गये सुर धाम)
रनर         ऽ।ऽ।।।ऽ।ऽ     दीन बंधु विन दीन की, (को रहीम सुध लेत)
रयलगा       ऽ।ऽ।ऽऽ।ऽ     खैर, खून, खाँसी, खुशी, (बैर, प्रीति, मदपान)
रजस        ऽ।ऽ।ऽ।।।ऽ     सार-सार को गहि रहे, (थोथा देय उड़ाय)
रयन         ऽ।ऽ।ऽऽ।।।     बैर प्रीति अभ्यास जस, (होत होत ही होय)
5.भगण से प्रारम्भ चरण
भमलगा      ऽ।।ऽऽऽ।ऽ      या अनुरागी चित्त की, (गति समुझै नहि कोय)
भमन        ऽ।।ऽऽऽ।।।     धूप झरोखा तोडक़र, (पहुँचे उनके गेह)
भतनल       ऽ।।ऽऽ।।।।।    राम न जाते हिरन सँग, (सीय न रावण साथ)
भभनलल     ऽ।।ऽ।।।।।।।    ज्यों नर डारत वमन कर, (स्वान स्वाद सों खात)
भभभल       ऽ।।ऽ।।ऽ।।।    दादुर, मोर, किसान मन, (लग्यौ रहै धन माहि)
भसनगा      ऽ।।।। ऽ।।।ऽ    दीन सवन को लखत है, (दीनहि लखै न कोय)
भतस        ऽ।। ऽऽ।।।ऽ    दीरघ दोहा अरथ के, (आखर थोरे आहि)
भसभल       ऽ।।।। ऽऽ।।।   जान परत है काक पिक, (ऋतु बसन्त के मांहि)
6. नगण से प्रारम्भ चरण
नननस       ।।।।।।।।।।।ऽ   कल कल कह सरि पुलिन सों, (चली सिन्धु की ओर)
ननसलगा     ।।।।।।।।ऽ।ऽ    सुन-सुन कर युग की कथा, (काँप उठा है गात)
नयभल       ।।।। ऽऽऽ।।।   जिन दिन देखे वे कुसुम, (गई सो बीति बहार)
नरभल       ।।।ऽ। ऽऽ।।।   करि फुलेल को आचमन, (मीठी कहत सराहि)
नयर         ।।।। ऽऽऽ।ऽ    जब सब पीले हो गये, (तन उपवन के पात)
ननननल      ।।।।।।।।।।।।।  जियत मरत झुकि-झुकि परत, (जेहि चितवन इक बार)
ननतगा       ।।। ।।।ऽऽ।ऽ   करत-करत अभ्यास के, (जड़मति होत सुजान)
नजजगा       ।।।।ऽ।।ऽ।ऽ    पुरुष पुरातन की वधू, (क्यों न चंचला होय)
7.सगण से प्रारम्भ चरण
समलगा       ।।ऽऽऽऽ।ऽ     मान संन्यासी हो गया, (तन पर धूल सवार)
सभभल       ।।ऽऽ।। ऽ।।।   मन शैतान समान इस, (तन में करता खेल)
सनजगा      ।।ऽ।।।।ऽ।ऽ    उलझा मन नव रंग में, (फिर भी मिटी न प्यास)
सजर        ।।ऽ। ऽ।ऽ। ऽ   कबिरा खड़ा बजार में, (माँगे सबकी खैर)
सभनगा      ।।ऽऽ।।। ।।ऽ   जब मैं था तब गुरु नहीं, (अब गुरु है मैं नाहि)
सनजलल     ।।ऽ।।। ।ऽ।।।   कमला थिर न रहीम कहिं, (यह जानत सब कोय)
सतस        ।।ऽऽऽ।।।ऽ     परदा दीखा भरम का, (ताते सूझे नाहि)
8.जगण से प्रारम्भ चरण
जभनगा      ।ऽ।ऽ।।।।। ऽ   अमी हलाहल मद भरे, (स्वेत श्याम रतनार)
जमलगा      ।ऽ।ऽऽऽ।ऽ     सदा नगारा कूँच का, (बाजत आठों याम)
जभर        ।ऽ।ऽ।।ऽ।ऽ     सदा रहे नहिं एक सी, (का रहीम पछितात)
जतस        ।ऽ। ऽऽ।।।ऽ    सगे कुबेला परखिये, (ठाकुर गुनो कि आहि)
जसनगा      ।ऽ।।। ऽ।।।ऽ   नहीं छनन को परतिया, (नहीं करन को ब्याह)

नोट-1.   दोहा का प्रथम व तृतीय चरण का प्रारम्भ पूरक शब्द जगण (।ऽ।) जैसे-अमीर,                                   किसान, जमीन आदि से नहीं होता।
2.           प्रथम व तृतीय चरण के अंत में यगण, मगण, तगण, जगण का प्रयोग नहीं होता।
दोहा के दूसरे व चौथे चरण का वर्णिक गण विश्लेषण-
दोहे का दूसरा व चौथा चरण 11-11 मात्राओं का होता है। इस चरण के अंत में गुरु-लघु (ऽ।) अनिवार्य रूप से आता है। केवल 11-11 मात्राओं की पूर्ति हो जाने से चरण का स्वरूप निर्धारित नहीं होता, इसके अभिरचन में वर्णिक गणों की व्यवस्था इस प्रकार है-
सूत्र          मात्रिक विन्यास            उदाहरण
ययल        ।ऽऽ।ऽऽ।      (जहाँ दया तां धर्म है), जहाँ लोभ तां पाप।
यनगाल      ।ऽऽ।।।ऽ।      (काटे चाटे स्वान के), दुहू भाँति विपरीत।
मसल        ऽऽऽ।।ऽ।      (बड़ा हुआ तो क्या हुआ), जैसे पेड़ खजूर।
तरल         ऽऽ।ऽ।ऽ।      (मिला रहे औ ना मिलै), तासों कहा बसाय।
तनगाल      ऽऽ।।।। ऽ।     (कबिरा धीरज के धरे), हाथी मन भर खाय।
रयल         ऽ।ऽ। ऽऽ।     (एक सिंहासन चढ़ गये), एक बांधि जंजीर।
रनगाल       ऽ।ऽ।।। ऽ।     (सदा रहै नहिं एक सी), का रहीम पछतात।
जयगाल      ।ऽ। ।ऽऽऽ।     (नहीं छनन को परतिया), नहीं करने को ब्याह।
जभगाल      ।ऽ।ऽ।। ऽ।     (रहिमन भँवरी के भये), नदी सिरावत मौर।
भमल        ऽ।।ऽऽऽ।      (सोना, सज्जन, साधुजन), टूट जुड़ैं सौ बार।
भनज        ऽ।।।।।। ऽ।    (लीक पुरानी को तजै), कायर, कुटिल, कपूत।
भभगाल      ऽ।।ऽ।।ऽ।      (जो पत राखन हार हो), माखन चाखन हार।
ननसल       ।।।।।।।। ऽ।   (जिन आँखिन सों हरि लख्यौ), रहिमन बल-बल जाय।
नयगाल      ।।।।ऽऽऽ।      (सनै-सनै सरदार की), चुगल बिगाड़े चाल।
ननत        ।।।।।। ऽऽ।    (काया काठी काल की), जनत-जनत सो खाय।
नरगाल       ।।। ऽ। ऽऽ।    (चतुरन को कसकत रहे), समय चूक की हूक।
नजज        ।।।। ऽ।। ऽ।   (औरन को रोकत फिरे), रहिमन पेड़ बबूल।
सनज        ।।ऽ। ।।। ऽ।   (एक रहा दूजा गया), दरिया लहर समाय।
समल        ।।ऽऽऽऽ।      (ऐसे घट-घट राम हैं), दुनिया देखे नाहि।
सभगाल      ।।ऽऽ।।ऽ।     (पंछी को छाया नहीं), फल लागे अति दूर।
ससगाल      ।।ऽ।।ऽऽ।     (करका मनका डार दे), मनका-मनका फेर।
                उपर्युक्त विश्लेषण से दोहे की अभिरचना में 13-13 मात्राओं के चरण के लिए 51 सूत्र तथा 11-11 मात्रााओं के चरण के लिए 21 सूत्र प्रतिपादित किये गये हैं। दोहा छंद का और अधिक गहराई से विश्लेषण करने पर इनसे अलग नवीन सूत्रों की संभावना है। वर्णिक गण छंद को गति एवं प्रवाह प्रदान करते हैं। अत: दोहा अभिरचन में वर्णिक गणों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है।
                                                                                                                               -शिवकुमार 'दीपक'
 हाथरस

सम्पर्क:- 9927009967

भक्तिकालीन दोहों में मिथक : डॉ.सुमन शर्मा


                मिथक जातीय जीवन की गतिशील चिंतन परम्परा होते हैं। यों वे स्वच्छ और निर्मल दर्पण हैं जिनमें कोई भी जाति अपने विश्वासोंपरम्पराओंजीवन-मूल्योंआस्थाओंसांस्कृतिक उत्थान-पतनसंघर्षोंविजयों-पराजयोंसमष्टिगत विचारोंआदर्शोंकल्पनाओंइच्छाओंआकांक्षाओंस्वप्रोंअनुभवों और संवेदनों के प्रतिबिम्ब देखती हैं| मिथक शब्द अंग्रेजी के मिथ शब्द का रूपान्तर है। इसका प्रयोग हिंदी में सर्वप्रथम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया था। उन्होंने इसे मिथुनीकृत मनुष्य भावों का बिम्ब कहा था। डॉ.रामसनेही लाल शर्मा के अनुसार  ''मिथक पुराकथाइतिहासपुराणधर्मकथाकल्पकथागाथानाराशंसीलोक गाथा और लोक विश्वासों का अद्भुत संगम होते हैं।" कोश के अनुसार ''मिथक में अतिमानवीय व अतिप्राकृतिक कार्यों का वर्णन होता है।" मिथकीय प्रयोग अभिव्यक्ति को सहज और प्रभावी बना देते हैं। पौराणिक नाम केवल नाम नहीं होते उनसे उनके चरित्र और उनके कार्य जुड़े होते हैं। कुंभकर्ण कहने पर अधिक सोने वाले आदमी का रूप उभरता है।
                भक्तिकाल के कवियों ने अपने दोहों में मिथकों के प्रयोग से अभिव्यक्ति को जीवन्त व प्रभावी बनाया है। यथा-
मन मथुरा दिल द्वारकाकाया कासी जाँणि।
दसवां द्वार देहुरातामें जोति पिछाँणि।।
                यहाँ मथुराद्वारिका और कासी केवल शहरों का द्योतन नहीं कर रहे। इनके साथ सांस्कृतिक विश्वास और मिथकीय संवेदन जुड़े हुए हैं जिनके कारण अभिव्यंजना इन शहरों के नामों के अतिरिक्त भावात्मक बिम्बों को नये रंग देने में सफल है।
कबीर के अतिरिक्त तुलसीरहीमजायसी आदि ने भी मिथकों के प्रयोग से दोहों की अभिव्यंजना को नये आयाम दिए हैं। दृष्टव्य है-
                क.          राज करत बिनु काज हीं करहिं कुचाल कुसाज।           
                                        तुलसी ते दसकंध  ज्यों  जइहै सहित समाज।।
                ख.          राज करत बिनु काज हींठटहिं जे कूर कुठाठ।
                                        तुलसी ते कुरूराज ज्योंं जहहै बारह बाट।।
                इन दोहों में 'दसकंध' और 'कुरूराज' मिथक हैंजिनके विनाश ही छवि उनके नामों से जुड़ी हुई है। रहीम ने भी मिथकीय प्रसंगों से अपने दाहों को नई छवि दी है। यथा-
                क.          रहिमन याचकता गहेबड़े छोट है जात।
                                        नारायण हू कौ भयौ बावन आँगुर गात।।
                ख.          थोरो किए बड़ेन कीबड़ी बड़ाई होय।
                                        ज्योंं रहीम हनुमन्त कोगिरिधर कहत न कोय।।
                उद्धरण 'क' में दृष्टांत के रूप में दूसरी संपूर्ण पंक्ति मिथक है जो प्रथम पंक्ति के अर्थ की पुष्टि करती है। उद्धरण 'ख' की दूसरी पंक्ति उत्पे्रक्षा अलंकार के माध्यम से प्रथम पंक्ति के कथ्य का उपमान बनकर आई है। तात्पर्य यह है कि मिथकों का प्रयोग भक्तिकालीन दोहों में प्रतीक के रूप में तो हुआ ही हैपरम्परागत अलंकारों के रूप में भी हुआ है। मिथकीय प्रयोगों के कुछ अन्य दोहे दृष्टव्य हैं-
                क.         बचन हेत हरिचन्द नृपभये सुपच के दास।
                                      बचन हेत दसरथ दयौरतन सुतहि बनवास।।
                ख.        मान सहित विष खाय केसंभु भये जगदीस।
                                     बिना मान अमृत पिये राहु कटायो सीस।।
                ग.        बसि कुसंग चाहत कुसलयह रहीम जिय सोस।
                                    महिमा घटी समुद्र कीराबन बस्यो परोस।।
                उपर्युक्त दोहों में मिथक-प्रयोग शब्द स्तर से आगे जाकर वाक्य स्तर तक फैला हुआ है। रत्नावली के दोहे 'क' में वचन पालन मूल विषय है जिसकी पुष्टि और गहराई के लिए हरिशचन्द्र और दशरथ का मिथकीय प्रयोग किया गया है। रहीम के दोहे 'ख' में भी यही स्थिति है जिसमें मूल विषय सम्मान रक्षा है। सम्मान की रक्षा करते हुए शंभु विष पीकर जगदीश हो गए और राहु ने मान रहित रहकर अमृत पिया तो अपना सिर कटाया। इस दोहे में दोनों स्थितियाँ मिथकों से ही सिद्ध की गई हैंइसे मिथक का दुहरा प्रयोग कहा जा सकता है। रहीम के 'ग' दोहे में दुष्ट के पड़ोस में बस जाने पर मिलने वाली पीड़ा को मिथकीय प्रयोग से स्पष्ट किया है।  इन मिथकीय प्रयोगों ने एक ओर दोहे की अभिव्यंजना को नये आयाम दिए हैंवहीं मिथक एक कारगर उपादान सिद्ध हुआ है।
                मिथक प्रयोग के लिए दोहा उपयुक्त छंद है। इसका अर्थ यह नहीं है कि मिथक का चाहे जितना बोझ लाद देने पर भी दोहे की छवि में गिरावट नहीं आयेगी। मिथक-प्रयोग यत्र-तत्र ही शोभा देता हैविधा चाहे दोहा हो या गीतिकाव्य। 'जो कवि अपने वक्र व्यापार को एक हल्की छुअन के साथ भाव के प्रकृत सौन्दर्य को उभारना जानता हैवही सफल गीतकार हो सकता है। बिम्बों और प्रतीकों की तह पर तह लगाकर भाव की तीव्रता को दफना देने वाला कवि गीति रचना में सफल नहीं हो सकता।' यह कथन जितना गीतिकाव्य और बिम्ब व प्रतीक के संदर्भ में सटीक हैउतना ही सटीक यह दोहा और मिथक के संदर्भ में भी है। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अलंकार काव्य का या दोहे का उद्देश्य नहीं होते उसी प्रकार मिथक-प्रयोग भी सहज भाव में ही सौन्दर्य की वृद्धि करता है। भक्तिकालीन कवियों ने इस तथ्य को बारीकी से समझा था। उनके दोहों में जहाँ भी मिथकीय प्रयोग हैंवे सहज रूप में हैं तथा उनकी भरमार भी नहीं है।
                'मिथकीय संदर्भों के प्रयोग से भाषा को गरिमा और कथ्य को एक नई भंगिमा मिलती है।' भक्तिकालीन दोहों में इस भंगिमा को स्पष्ट देखा जा सकता है। यथा-
          समय परे ओछे बचनसबके सहे रहीम।
          सभा दुसासन पट गहेगदा लिए रहे भीम।।
                यहाँ प्रथम पंक्ति में समय पडऩे पर दुष्टों के कटु वचन सुनने की विवशता के भाव को रूपायित करने में दूसरी पंक्ति अद्भुत भूमिका निभा रही है। अभिव्यक्ति की इसी भंगिमा के बल पर दोहा प्राणवान हैअन्यथा यह नीरस होकर रह जाता। स्पष्ट है यह भंगिमा मिथक-प्रयोग की है।
                मिथकीय प्रयोग का एक पहलू और हैवह यह है कि मिथक युग बोध के रूपायन में विशेष रूप से सहायक होते हैं। इसलिए नवगीत के संदर्भ में डॉ.रामसनेही लाल शर्मा ने कहा है कि 'नवगीत में मिथकीय संदर्भों का सर्वाधिक प्रयोग युग बोध की अभिव्यक्ति के लिए किया गया है। आधुनिक युग की जीवनगत विसंगतियों और प्राणघाती यंत्रणाओं को विविध मिथकों के प्रयोग से बड़ी सार्थकता से व्यक्त किया गया है।' शिल्प का कोई भी उपादान होउसका जो मूल प्रकार्य होता है वह हर युग में प्राय: वैसा ही रहता है। अत: मिथक युगबोध के रूपायन का उपयुक्त उपादान भक्तिकाल में भी था और उस काल में इसे मिथक नाम से अस्मिता प्राप्त नहीं हुई। तात्पर्य यह है कि भक्तिकाल के दोहों में भी मिथकों से युगबोध को रूपायित करने में सहायता मिली। दृष्टव्य है-
क.          मान्य मीत सों सुख चहैं सो न छुऐ छल छाहँ ।
                        ससि त्रिसंकु कैकई गति लखि तुलसी मन माहँ।।
ख.          क्षमा बडऩ को चाहिएछोटन को उतपात।
                        कहा विष्णु को घटि गयोजो भृगु मारी लात।।
                उद्धरण 'क' में छल का विरोध है। छल के दुष्परिणामों के शिकार मिथकीय नाम हैं-'ससित्रिसंकुकैकई'जिनका भय दिखाकर कवि समाज को छल रहित बनाना चाहता है। जाहिर है यह 'चाहना' उस काल के युगबोध का सूचक है अर्थात भक्तिकाल में छल-प्रपंच से सामान्य जन पीडि़त थे। इसी प्रकार उद्धरण 'ख' में कबीर ने सहनशीलता और क्षमाशीलता जैसे गुणों और मूल्यों को अपनाने पर बल दिया है। प्रश्र उठता हैइसकी आवश्यकता उन्हें क्यों पड़ीइसका एक ही उत्तर है और वह है कि उस काल में इन गुणों का अभाव था और कवि ने उसी युगबोध को इस दोहे में मिथक के सहयोग से रूपायित कर दिया। इस प्रकार भक्तिकालीन दोहोकारों ने दोहों में मिथक प्रयोग को कई दृष्टियों से अपनाया है।   
संदर्भ-
1.भारतीय मिथक कोशसंपादक डॉ.उषा पुरीपृष्ठ-8
2.समकालीन हिन्दी साहित्यडॉ.बच्चन सिंहपृष्ठ-35
3, 14, 16.परामर्शजून, 1991, पृष्ठ-145, 147, 148
4.मानविकी परिभाषिक कोशडॉ.नगेन्द्र
5, 18.कबीर समग्रसंपादक युगेश्वरपृष्ठ-293, 442
6, 7, 17.दोहावलीतुलसीदासपृष्ठ-143, 143, 111
8, 11, 12. रहीम रचनावलीसंपादक -सत्यप्रकाश मिश्रपृष्ठ-78, 70, 68
9,10, 15.हिन्दी दोहा सारसंपादक -वरजोर सिंह सरलपृष्ठ-60, 47, 58
13.गीति सप्तकसंपादक डॉ.राकेश गुप्त एवं ऋषिकुमार चतुर्वेदीपृष्ठ-13

                                                                                                -डॉ.सुमन शर्मा,  दिल्ली 

Friday, March 27, 2015

दोहा : एक वक्तव्य

                मानुषी संवेदना की मर्मस्पर्शी अनुभूति और उसकी छान्दसिक अभिव्यक्ति, भारतीय काव्यकला की आधारभूमि रही है। वैदिक ऋचाएँ तथा प्रथम लौकिक काव्य, बाल्मीकि रामायण इस कथन के साक्षी हैं। दोहा छन्द अपनी छान्दसिक परंपरा में अग्रणी रहा। समय की अविच्छिन्न धारा में समाज-सापेक्षता के अनुरूप, काव्यविधाएँ, शिल्पान्तरित होती रही और प्राकृत युग में छान्दसिक भ्रूण के रूप में विद्यमान 'दोहा' (दोग्धक, दोधक, दूहक, दूहा आदि संज्ञाओं वाला) छंद अपभ्रंश में उद्भूत होकर निरन्तर वर्धमान होता रहा। हिन्दी साहित्य के आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य (प्रमुखत: जैन एवं सिद्ध काव्यधारा) में दोहा छन्द पूर्णता प्रौढ़ता और प्रसिद्धि प्राप्त हुआ, अवहट्ट (पुरानी हिन्दी) में विराजमान हुआ। कालान्तर में भक्तिकाल और रीतिकाल में तो यह प्रमुखता एवं प्रभाववत्ता के साथ प्रतिष्ठित रहा। आधुनिक काल में भारतेन्दु युग तक दोहा, ब्रजभाषा मिश्रित हिन्दी में लिखा जाता रहा। द्विवेदी युग, खड़ी बोली की साहित्यिक प्रतिष्ठा का विशेष आग्रह लेकर आया तथा इस काल खंड में संस्कृत के वर्णिक एवं मात्रिक छन्दों को खड़ी बोली-काव्य भाषा में साग्रह निरूपित किया गया। इन्हीं छन्दों में लिखा गया अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का 'प्रिय प्रवास' खड़ी बोली हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है। छायावादी कवियों, प्रमुखत: प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी आदि ने अपनी शालीन एवं उदात्त काव्याभिव्यक्ति के लिए अनेकानेक नये छन्दों को आविर्भूत किया। प्रगतिवाद व प्रयोगवाद, नई कविता, साठोत्तरी कविता, अकविता आदि काव्यान्दोलनों के चलते, धीरे-धीरे कविता, छान्दसिकता से लगभग विरत होती गई और आज तो वह छन्दमुक्त ही हो गई है, यह बात अलग है कि इसे 'गद्यकविता' न कहकर नई कविता (अकविता) के पक्षधर लोग 'मुक्तछन्द कविता' कहते हैं, गोया ये बुद्धिजीवी, छन्द जैसे साधनाप्रसूत कवि-कर्म से तो मुक्ति चाहते हैं, पर छान्दसिकता से कहीं न कहीं नाता जोड़े रखना चाहते हैं, इसीलिए अद्यतन 'गद्यकविता' में यदा-कदा शब्दों की आन्तरिक लय, ताल और पठनीयता के प्रवाह आदि की बातें होती रहती हैं।
                यद्यपि अकविता के इस दौर में भी छन्दोबद्ध काव्य रचनाएँ, अल्पमात्रा में ही सही, होती रहीं, किन्तु 'दोहा' प्राय: अदृश्य हो गया।
                स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी साहित्य में दुष्यंत की $गज़लों के प्रखर एवं उल्लेखनीय प्रभाव को देखते हुए यह महसूस किया गया कि हिन्दी में क्या कोई ऐसी विधा नहीं है, जिसकी दो पंक्तियों में उर्दू गज़ल की तरह प्रखर, प्रभावी और चुटीली बातें कही जा सकें। संभवत: इसी विचार ने अस्सी के दशक के आसपास दोहा छन्द की वापसी का काम किया। आज तो दोहा, हिन्दी काव्य विधा के केन्द्र में है। चार चरणों और 48 मात्राओं वाले इस छन्द के विषम चरणों में तेरह-तेरह तथा सम चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ, मानक बनी हुई हैं। प्रथम तथा तृतीय चरण के प्रारम्भ में जगण नहीं होना चाहिए। दूसरे और चौथे पद के अन्त में क्रमश: एक गुरु और एक लघु होना चाहिए। यह एक ऐसा छन्द है, जिसे उलट देने से 'सोरठा' तथा आदि और अन्त में दो-दो मात्राएँ बढ़ा देने से 'उल्लाला' छंद बन जाता है। मात्राओं के इस घटत-बढ़त या उलट-फेर से कई अन्य छंद बन जाते हैं।
                आज के दोहे अपनी पुरानी पीढ़ी से कई सन्दर्भों, अर्थों आदि में विशिष्ट हैं। इनमें भक्तिकालीन उपदेश, पारंपरिक रूढिय़ाँ और नैतिक शिक्षाएँ नहीं हैं, न ही रीतिकाल की तरह शृंगार। अभिधा से तो ये बहुत परहेज करते हैं। ये दोहे तो अपने समय की तकरीर हैं। युगीन अमानुषी भावनाओं, व्यवहारों और परिस्थितियों के प्रति इनमें जुझारू आक्रोश है, प्रतिकार है, प्रतिवाद है।
                इनके पास एक तीसरी आँख भी है जिसके द्वारा ये अपने काइयाँ समय के प्रच्छन्न छल-छद्म की नकाबपोशी को तार-तार कर देते हैं। इनकी अर्धगर्भी ध्वनियाँ, सहृदयों को व्यंजना के कई-कई गन्तव्यों का पता देती हैं। इनकी प्रखर, प्रभावी सम्प्र्रेषणीयता, वैचारिक स्तर पर, अनेक सवाल खड़े करती है। सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध व्यावहारिकता की प्रेरिका बनती है। नई 'ज़मीनÓ पर नई 'कहनÓ के साथ अधिष्ठित आज के दोहे, सवर्था काम्य हैं-
                दोहे 'दरपन' वक्त के, मौजूदा तकरीर।
                किसी यक्ष की त्रासदी, नागमती की पीर।।
                काया इनकी 'वामनी, माया किन्तु अनन्त।
                कभी संत बन कर रहा, कभी बना सामन्त।।
                हर मंजि़ल हर मोड़ पर, इसने छोड़ी छाप।
                काया तो है वामनी, लिया सभी कुछ नाप।।
                प्राकृत युग से आज तक, पा कितनों का प्यार।
                इस दोहे ने रचे हैं, कितने ही संसार।।
                सब मुरीद इसके रहे, मीर, औलिया, पीर।
                नरम पड़ा 'तुलसी' बना, अक्खड़ हुआ 'कबीर'।।
                गीत और नवगीत से, आगे है गतिमान।
                इसे $गज़ल ने भी दिया, स्वीकृति औ' सम्मान।।

-डॉ.राधेश्याम शुक्ल, हिसार

दोहा की आत्मकथा : डॉ.अनन्तराम मिश्र 'अनन्त'

मैं दोहा हूँ। भाषा मेरा शरीर, लय मेरे प्राण और रस मेरी आत्मा है। कवित्व मेरा मुख, कल्पना मेरी आँख, व्याकरण मेरी नाक, भावुकता मेरा हृदय तथा चिन्तन मेरा मस्तिष्क है। प्रथम-तृतीय चरण मेरी भुजाएँ एवं द्वितीय-चतुर्थ चरण मेरे चरण हैं। अन्य छंद भाइयों की तुलना में बौना होकर भी पते की बात कहने और सहृदयों पर प्रभाव जमाने में विराट, मैं आजानुबाहु हूँ तथा अपने छोटे-छोटे पैरों से त्रिविक्रम की भाँति त्रिलोकी को नाप लेने की सामथ्र्य रखता हूँ। मेरा स्वभाव सारग्राही है, संक्षेपणप्रिय है। मंत्र, कारिका, सूत्र इत्यादि के सदृश मैं भी न्यूनातिन्यून शब्दों में कथ्य-कथन का अभ्यस्त हूँ। प्रयत्न लाघव मेरा भी जनक है।
                जब कागज का आविष्कार नहीं हुआ था, लेखन के लिए भोजपत्र भी हर किसी को सुलभ न थे-तब अनिवार्य तथा उपयोगी कथ्यों एवं तथ्यों को मैंने अपनी छोटी-छोटी अँजलियों में भर-भरकर मानवीय स्मृतियों में संरक्षित रखने की भूमिका का सफल निर्वाह किया है। साहित्य का न जाने कितना ज्ञान मेरी स्मरण-सुलभता और तद्बद्धता के कारण विस्मृति के गर्त में ढुलकने से बच गया।
                संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रजी, अवधी, कन्नौजी, भोजपुरी, बुन्देलखंडी, राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी इत्यादि भाषा-बोलियों में साधिकार बोलने की महारत मुझे हासिल है। मेरा अस्तित्व अन्तर्राष्ट्रीय है, पाकिस्तान के शायरों ने, और विदेशों के हिन्दी प्रेमियों ने भी मुझको अपने रचनाधर्म में सादर समाहित किया है। अधुनातनीन पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन, दूरदर्शन-आकाशवाणियों के प्रसारण, काव्य-संगोष्ठियों, कवि सम्मेलनों से लेकर परिचर्चा, साक्षात्कार, छंदशास्त्र, निबंध, शोधग्रन्थों तक मेरा झण्डा गड़ा हुआ है। डॉ. कमलाशंकर त्रिपाठी का तो समग्र शोध-प्रबंध ही मेरे व्यक्तित्व-कृतित्व पर आधारित है।
संस्कृत ने मुझे 'दोग्धक' कहा है। जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन कर ले (दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्), परन्तु मैं रसिकों के चित्त का ही नहीं वण्र्य विषय का भी सारतत्व दुहकर प्रस्तुत करता हूँ, इस प्रकार मेरे दोग्धक नाम में उभयार्थक गुणवत्ता व्यंजित है। 'द्विपथा' 'द्विपथक' 'द्विपदिक' तत्सम शब्द भी मेरे सम्बोधन हैं। अगली काल यात्रा के पड़ावों में मैं अपने नाम ब्रह्मपुत्र महानद की तरह बदलता चला हूँ। वे हैं-दोहक, दूहा, दोहरा, दोहड़ा, दोहयं, दोहउ, दुवह, दोहअ। मुझे क्षणभर में सुन समझकर 'क्षणिका' भी कहा जा सकता है और मेरा अनुज 'बरवै' तो भारतीय काव्य में 'हाइकू' की तरह प्रचलित रहा है।  
                जैसे संस्कृत में अनुुष्टुप् ने न केवल काव्य का, अपितु अधिकांश शास्त्र, संहिता, स्मृति, धर्म-दर्शन, वैद्यक, ज्योतिष, अर्थशास्त्र, शब्दकोश तथा सहस्त्रनामों तक को पद्यबद्ध करने का दायित्व ग्रहण एवं निर्वहन किया है, ठीक वैसे ही मैंने भी हिन्दी में बहु पारिवेशिक प्रगति की है। जिन्दगी को वैविध्य और नित्य नवीनता की ताजगी के अहसासों में जिया है। प्राकृत में गाथा तथा उर्दू में  कता/शेर की भाँति मैं अपभ्रंश के बाद हिन्दी का सर्वप्रिय छंदशिल्प हूँ। गाँव गलियारों से लेकर महानगर राजपथों तक, पथों से लेकर अभ्रंलिह अट्टालकों तक, अटारियों से वनों-खलिहानों तक मेरी चामत्कारिक परिव्याप्ति, क्या अनन्य वैशिष्ट्य का प्रमाण नहीं है?
                सवैया, घनाक्षरी, छप्पय, झूलना, कुण्डलिया इत्यादि के समान मैं भी भारत के लोक-जीवन से सम्पृक्त हूँ। लोक-मानस की सांस्कृतिक चेतना सर्वाधिक मुखर मेरे ही मुख से हुई है। मैंने एक ओर रमणीयार्थ प्रतिपादक शब्दों एवं रसात्मक वाक्यों से काव्य प्रेमियों पर जादू डाला है, दूसरी ओर धर्म-अध्यात्म, भक्ति, आयुर्वेद, लोकाचार, लोक-नीति, खेती-किसानी और स्वाभिमान-बोधक सुभाषितों को भी अपनी परिधि में समेट कर समूचे समाज को प्रभावित किया है। बातचीत के दौरान मौका पाते ही मैं मुख-नावक से निकलकर सम्मुखीन को आनंद-शराघात से विह्वल कर देता हूँ। सैंकड़ों सूक्तियाँ मेरी उँगली पकडक़र व्यवहार जगत् में टहलने निकलती हैं, जिन्हें एकपांक्ति रूप में भी आप पहचान लेंगे। इस प्रकार लोककथा-लोकगीत की भाँति मैं भी लोक-साहित्य का एक अंग हूँ।
                न जाने, ऐसे कितने लोक-मन्तव्य मेरे माध्यम से अभिव्यक्त एवं व्यवहृत हैं, जिनके लेखक अज्ञात हैं। जिन्होंने नाम कमाने की दुरतिक्रम्य एषणा को जीतकर अपना सृजन लोकार्पित कर दिया। जब किसी रचनाकार की व्यष्टि समष्टि से ऐसा ही तादात्म्य स्थापित करती है अथवा अनेक हाथ मिलकर एक सामूहिक अनुभव को पद्य में ढाल देते हैं-तब लोक-साहित्य बनता है। इस दृष्टि से लोक प्रचलित मेरे अंश  'लोकदोहक' हैं। ये गुप्तदान किस-किसके हैं? कोई नहीं जानता। इनमें मध्ययुगीन कवियों के समान नाम या उपनाम नहीं मिलते, क्योंकि इन्हें चोरी का डर नहीं है, ये सबके हैं। किसी एक के नाम इन्होंने अपनी वसीयत नहीं लिखी है। वृन्द, सम्मन, घाघ भड्डरी, गिरिधर राय, बाबा दीनदयाल गिरि के बहुसंख्य सूक्त भी जन-जीवन में चलते-चलते लोकदोहकों की श्रेणी में खड़े हो गये हैं, जबकि कबीर, जायसी, तुलसी, रहीम तथा बिहारी इन पाँच कवियों के द्वारा मुझे असाधारण लोकप्रियता तो अवश्य मिली, पर मैं लोक साहित्य की सरणि में न आ सका। मैंने उक्त महाकवियों के अनुशासन में कहीं-कहीं संस्कृत श्लोकों का भावानुवाद भी किया है और उनके निजी अनुभवों का साखी (साक्षी) भी बना हूँ।
                मेरा लोक दोहक रूप अधिकांश मध्ययुगीन है, अत एव उसकी विचार सरणि मध्यकालिक है, इनसे सत्वर परिवर्तनशील साम्प्रतिक जीवन-मूल्यों की अपेक्षा वैसे ही हैं, जैसे पाषाण युग में कम्प्यूटर की कल्पना। इनमें शैल्पिक सौष्ठव भले ही न हो, किन्तु वैचारिक गुरुत्व एवं भावनात्मक गाम्भीर्य भरपूर है, जिसमें से बहुत कुछ आज भी प्रेरक और प्रासंगिक है। लोक दोहक रूप में मैं ग्रामीण वृद्धों, महिलाओं, तीर्थ-घाटों, धर्मस्थानों, विद्यार्थियों, अध्यापकों, नट-कलाबाजों, अल्हैतों, कश्मीरी भाँडों, भिक्षुकों, कथावाचकों, सन्तों तथा किसानों में प्राप्य हूँ। यद्यपि अब पर्याप्त मुद्रण-व्यवस्था के कारण स्मरणीय के संरक्षण में मध्ययुग जैसी मेरी आवश्यकता नहीं रह गई है, तथापि गद्य की अपेक्षा पद्य के शीघ्र याद हो जाने के परिणामस्वरूप मैं इस युग में भी कभी-कभार लोक दोहक रूप ग्रहण कर लेता हूँ। अंग्रेजी का कौन महीना कितनी तिथियों का होता हैयह ऐसे ही याद रखना थोड़ा कठिन है, इसलिए सरलतापूर्वक इसे अपनी स्मृति में बिठलाने के लिए लोक ने मेरा आह्वान किया। मैं बोला- 'जून नवम्बर जानिए, अप्रैल सितम्बर तीस। अठाइस की फरवरी, बाकी सब इकतीस'। अब ऐसे लोकदोहक अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं, क्योंकि इन दिनों मैं कण्ठस्थता में कम, मुद्रण में ज्यादा रुचि रखने लगा हूँ।
                लोक-संस्कारों की गहरी छाप और धरती के सौंधेपन से प्रगाढ़ जुड़ाव होने के कारण मुझे तद्भव तथा देशज शब्द अधिक प्रिय हैं। उनमें मेरा रूप जैसा निखरता है, वैसा तत्सम पदावली में नहीं। बोलियों में रच-बसकर मैं इसी कारण अधिक प्रभावी रहा हूँ। मुहावरा-कहावतें मेरी अभिव्यक्ति-विच्छित्ति मेंं चार चाँद लगा देते हैं। मेरे सम्प्रेषण की रवानी और बढ़ जाती है, मैं और सुस्वादु हो उठता हूँ।
                ...पहले बहुत समय तक श्रुति-परम्परा के ताल-संगीतानुसारी दुवहअ (द्विपथक) रूप में मेरा प्रचलन रहा। बाद में जब मैं लिपिबद्ध हुआ, तब अन्य छंद-बंधुओं की भाँति मुझको भी पिंगलीय आचार संहिता से अनुबन्धित होना पड़ा। आचार्यगण सदी-दर-सदी मेरे स्वरूप, लक्षण, उदाहरण एवं भेदोपभेद पर मगजमारी करते रहे। चौदहवीं शताब्दी में मैं उपदोहअ (दोहरा), अवदोहअ (सोरठा),संदोहय (दोही), चूडाल दोहअ (चुलियाला) और नन्दादोहा (बरवै) रूपों में पल्लवित-पुष्पित हुआ। गणात्मकता ने मुझको वर्णवृत का कलेवर दिया, तो लयात्मक ध्वनि-सौन्दर्य ने मुझे मात्राच्छन्द बना डाला। पिंगलज्ञों ने मेरे कितने ही रूप भेद क्यों न किये हों, परन्तु मेरा सर्वाधिक प्रचलित रूप वही है, जिसमें विषम पदों में तेरह-तेरह तथ सम पदों में ग्यारह-ग्यारह मात्राओं का विधान है। हिन्दी के पिंगलाचार्य श्री जगन्नाथ प्रसाद  'भानु' के 'छंद-प्रभाकर' में मेरा विशद व्याकरण दृष्टव्य है। एक छप्पय में उन्होंने मेरे तेइस भेदों के नामकरण भी किये हैं-
भ्रमर सुभ्रामर शरभ श्येन मंडूक बखानहु,
मर्कट करभ सु और नरहिं हँसहि परमानहु,
गनहु गयन्द सु और पयोधर बल अवरेखहु,
बानर त्रिकल प्रतच्छ कच्छपहु मच्छ विसेषहु,
शार्दूल सु अहिवर काल जुत, वर बिडाल अरु श्वान गनि।
उद्दाम उदर अरु सर्प सुभ, तेइस विधि दोहा बरनि।।
                यह छप्पय पढक़र क्या आपको ऐसा नहीं लगता है कि भानु जी ने मेरे भरे-पूरे परिवार के अभिधान विभिन्न पशु-पक्षियों से जोडक़र उसे एक अजायब घर बना दिया है? मुझे तो पहली बार ऐसी ही अनुभूति हुई थी। खैर... आचार्यों की बात आचार्य ही जानें। हाँ, मैं कवियों को इतनी सलाह अवश्य देना चाहूँगा कि वे मेरे ब्राह्मण वर्ण, गुण-दोष और ढाँचे की सजावट को लेकर बहुत चिन्तित न हों। अपनी ऊर्जा का अधिकांश व्यय मुझमें सरस कवित्व भरने में ही करें। छन्द शास्त्र की बारीकियों को प्रतिपल दृष्टि में रखने वाला अच्छा समीक्षक/आचार्य तो हो सकता है, किन्तु वह रस प्रवण कवि भी हो, यह कोई नियम नहीं है। लय को पूर्णत: हृदयंगम करने एवं वांछित अभ्यास के बाद छन्द स्वत: निर्दोष रूप में लेखनी से अवतरित होता है। इसलिए मेरा कहना है-यदि रचनाकार मेरे कायिक चाकचक्य में ही उलझ गया और आत्मिक/हार्दिक सौन्दर्य पर यथेष्ट ध्यान नहीं दिया, तो उनके कवित्व-नावक से प्रक्षिप्त मैं सहृदयों को पैने तीर की तरह नहीं वेध पाऊँगा।
                मेरे थोड़े फेर-बदल से अन्य कई छंद बन जाते हैं। मेरे पद-विन्यास को यदि उलट दें, तो  'सोरठा' बनता है। रोला के सिर पर आरूढ़ होकर मैं  'कुण्डलिया' का जादू चलाता हूँ। छप्पय की अंतिम दो पंक्तियों में भी मात्राओं के यत्किंचित उलट-फेर सहित मैं उपस्थित हूँ।  'अहीर' मेरी ग्यारह-ग्यारह सम पद-मात्राओं की उपज है। मेरे सम चरणों में पाँच-पाँच मात्राएँ बढ़ाने से चूलियाला (चूलिका) और दस-दस मात्राओं के योग से 'उपचूलिका' वृत बनते हैं। विषम पदों में दो-दो मात्राओं के जुड़ते ही मैं 'उद्गाथक', 'मदनविलास' एवं 'संदोहक' नाम धारण कर लेता हूँ। अवधी का प्राणप्रिय 'बरवै' मेरा ही संक्षिप्त संस्करण हैं। उसे आचार्य हरदेवदास ने सुस्पष्ट 'नंदादोहा' कहा है। युग प्रवर्तक कवि जयशंकर 'प्रसाद' ने स्कन्दगुप्त में मेरे समचरणों में दो-दो मात्राएँ बढ़ाते हुए मुझे अद्र्धसम से पूर्णसम वृत 'दोहकीय' में परिणत कर दिया है-
                                धमनी में तन्त्री बजी, तू रहा लगाये कान।
                                बलिहारी मैं कौन तू, है मेरा जीवन प्रान।।
                प्राचीन कवियों ने पंचमात्रिक शिखाओं से सम्पन्न चूडाल रूप में मुझे स्नेहाभिनन्दित किया, तो भ्रमरगीत संदर्भित अपनी पदावली में नंददास ने मुझको सपुच्छ बनाकर हनुमान के समान अपने काव्य-राम के भक्ति-व्रत की दीक्षा दी। अब मंचीय कवियों के हास्य रस का साधन बनकर मैं दमदार तो नहीं, पूरी तरह दुमदार अवश्य हो गया हूँ। नाटक में विदूषक, सर्कस में जोकर तथा मदारी के बंदर की भाँति इन दिनों मैं लोगों को हँसाता हूँ और कवियों की जेबें भरता हूँ।
                मेरी प्रकृति समायोजनशील है, समन्वयात्मक है। मुक्तक काव्य की सफल अभिव्यक्ति का अप्रतिम माध्यम होने के बावजूद मैंने प्रबंधकाव्यों में मध्यस्थता की है। बहुबंधीय गीतों, $गज़लों के साथ ही वर्तमान ने मुझे चतुष्पद मुक्तकों में भी ढाल लिया है। प्रबंधकृतियों में पूर्वापर तारतम्य बनाये रखने, छंदगत एकतानता को हटाने तथा कथा-प्रसंगों को प्रभावशाली बनाने में मेरा योगदान महत्वपूर्ण है। अपभ्रंश, हिन्दी के आदिकाल एवं मध्यकाल के प्रबंध-काव्यों से लेकर इस युग के मैथिलीशरण गुप्त-रचित 'साकेत', 'जयभारत' और आनन्दकुमार-कृत 'अंगराज' तक मेरी अविकल व्याप्ति है। फिर भी मैं कोरा कथावाचक नहीं हूँ, इसी कारण पूरे के पूरे प्रबंधकाव्य-सृजन का भार पड़ते ही मैं कन्धा डाल देता हूँ। यदि कोई कवि कथाकाव्य में आद्योपांत बलात् मेरा उपयोग कर भी ले, तो मैं उसको बिरस और सौन्दर्य-वंचित किए बिना नहीं रहता। द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता एवं वर्णनात्मकता के प्रतिक्रियाधर्मी छायावाद के समान मैंने सदैव सूक्ष्य भावाभिव्यंजनाओं को आत्मसात् किया है। मुझको समास शैली प्रिय है न कि व्यास।
                ...कालिदास के विक्रमोर्वशीयम् (4/8) में मेरा बीज विद्यमान है। अपभ्रंश में मुझे शैशव, हिन्दी के आदिकाव्य में बाल्य, भक्तिकाव्य में कैशौर्य, रीतिकाव्य में यौवन और आधुनिक काव्य में प्रौढ़त्व प्राप्त हुआ है। राजस्थानी आन-बान में मुझे बारम्बार मोहा है, क्योंकि मेरा नाल वहीं गड़ा है। सौराष्ट्र में मैं सोरठा बना। गुजरात की 'द्वारकेश सतसई' और 'दयाराम सतसई' मेरे रसिकों के कण्ठहार हैं।
                सरहपा, धवल कवि, पुष्पदन्त, देवसेन, धनपाल, यश:कीर्ति, विरहाँक, स्वयंभू, नन्दिताढ्य, कण्हपा, तिलोपा, जोइन्दु, रामसिंह, हेमचन्द्र, नेमिचन्द्र भंडारी, अब्दुर्रहमान, प्रभाचन्द्राचार्य, राजशेखर, महेश्वर सूरि, सुप्रभ, वीर, नयनन्दि, अद्दहमाण, जिनदन्त सूरि, श्रीधर, हरिभद्र, सोमप्रभ, शार्गंधर, लक्ष्मीधर, देवसेन गणि, अमरकीर्ति, मेरुतुँग, शालिभद्र सूरि, विद्यापति ठाकुर इत्यादि का पुण्य स्मरण मेरा पुनीत कर्तव्य है। इनकी प्रतिभा की गोद में ही मेरा शैशव खेल-खेल कर बढ़ा है। जैन-बौद्ध, सिद्ध-संतों के धर्मोपदेश, अध्यात्म-दर्शन, चारण-भाट कवियों की राजप्रशस्ति, प्रबंध-मुक्तक-रासक काव्य, कथा-कोश और छंदोनिरूपक लक्षणग्रन्थ मेरी असंख्य व्याहृतियों तथा नानारूपों से रुपायित है।
                हिन्दी के आदिकाल की वीर गाथाएँ कहता और युद्ध-मुद्राओं को उद्दीपित करता हुआ मेरा दिग्जयी रथ मध्ययुग की सीमाओं में सत्कृत होता है। गुरू नानक, अंगद, अमरदास, गुरू रामदास, गुरू अर्जुनदेव, गुरू तेगबहादुर, गुरू गोबिन्द सिंह, जंभनाथ, सिंगा जी, दादूदयाल, वषना, गरीबदास, मलूकदास, हरिदास निरंजनी, सुन्दरदास-प्रभृति संतों ने जहाँ मुझे सद्ज्ञान का संदेशवाहक बनाया, वहीं दाऊद, कुतबन, मंझन, मलिक मुहम्मद जायसी, उसमान, जानकवि, कासिमशाह, नूर मोहम्मद-जैसे सूफी कवियों ने अपने-अपने प्रेमाख्यानकों में मेरे अस्तित्व को अपरिहार्यता प्रदान की। अष्ट छाप के कवियों ने मेरे अधरों पर यदि श्याम-श्यामानुराग की बाँसुरी रखी, तो रामभक्तों ने भारत के उदात्त आदर्शों में मुझको स्वरूप-दर्शन, मर्यादा-बोध एवं जन-मंगल के सम्पादन का सुयोग दिया। निर्गुणवादियों के ज्ञान-गौरव की गूढ़ता, जटिलता, नीरसता तथा सूफी संतों की प्रेम विह्वलता और सगुणमार्गियों की नैष्ठिक भक्तिभावना सबको मैंने समान भाव से जन-मन तक प्रसारित-प्रचारित किया है। मीराबाई के पदों में एक स्थल पर मुझे ऐसा प्रयोग भी मिला, जो लोकोक्ति रूप में प्रतिष्ठित है-
                                ''जो मैं ऐसा जानती, प्रीति किए दुख होय।
                                नगर ढिंढ़ोरा पीटती, प्रीति न करयो कोय।।"
                इसको हफी जुल्लाह खाँ ने 'नवीन संग्रह' में ''हाफिज' जो मैं जानती' इतने से परिवर्तन के साथ अपनी रचना बना लिया। आम आदमी की जिन्दगी के लासानी चितेरे रहीम का सानिन्ध्य पाकर मैंने अनपढ़ों में भी अपनी पैठ और पकड़ मजबूत की। अपने साधारणीकरण में कोई कोर कसर नहीं रखी।
                रीतिकाव्य-प्रवर्तक आचार्य कवि केशवदास/चिन्तामणि त्रिपाठी से भारतेन्दु तथा सनेही-मण्डल तक की कालावधि में शायद ही कोई कवि ऐसा हो, जिसने मुझे अपना शब्द-अध्र्य न दिया हो। रीतिसिद्ध, रीतिबद्ध एवं रीतिमुक्त तीनों कोटि के कवियों ने मुझे राजविरूद, वीरपूजा, श्रृंगारोद्भावन, भक्ति, नीति, काव्यांग-निरूपण, उदाहराणादि की प्रस्तुति का पुष्ट आधार बनाया है। आजकल के जनसंख्या-विस्फोट की भाँति उन दिनों मेरा गणित लाखों तक जा पहुँचा था। भावपक्ष की दृष्टि से भक्तिकाल में और कलापक्ष की दृष्टि से रीतिकाल में जो सूक्ष्मता, सम्पन्नता तथा विशदता मैंने अर्जित की, वह पूर्ववर्ती युगों की हिन्दी में नहीं थी, परवर्ती युगों में अवश्य उसकी बाट जोह रहा हूँ।
                मुक्तक, युग्मक, विशेषक, कलापक, कुलक, सप्तक के अतिरिक्त पच्चीसी, बत्तीसी, चालीसा, बावनी, शतक, सतसई, हजारा जैसे संख्याश्रित मुक्तक काव्य में भी प्राय: सर्वत्र मैं व्याप्त हूँ, परन्तु प्राकृत की 'गाथा सप्तशती' के अनुसरण पर प्रवर्तित सतसई-परम्परा में मेरा विशेष पल्लवन हुआ है। ईश्वर दास, हितवृन्दावनदास, सुषमन गोस्वामी, रामसहायदास, बेताल, नवलसिंह प्रधान, वृन्द, मतिराम, भूपति, चन्दन, रसनिधि इत्यादि रीतिकवियों की सतसइयाँ मैंने इन्द्रधनुषी भाव-भंगिमाओं से श्रृंगारित की हैं, किन्तु बिहारीलाल का नाम लेते ही मेरी देहश्री कदम्ब-कण्टकित हो उठती है। मैं आनन्द-अम्भोधि में डूब-डूब जाता हूँ, मेरी चेतना को एक अनाम सम्मोहन आच्छादित कर लेता है। मेरे इस नैष्ठिक अनुरागी की कविता-सुकुमारी ने छंद-स्वयम्वर में मात्र मेरा वरण किया और दूसरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा। उसने विश्व स्तर पर जो कीर्ति-प्रतिमान स्थापित किया, सदियों पर सदियाँ निकल जाने के बाद भी उसका अतिक्रमण कोई सरस्वती-पुत्र अभी कर नहीं पाया है। अब तक की सतसइयों में 'बिहारी सतसई' मास्टर पीस है। यह मेरा गगनचुम्बी कीर्तिकलश तथा रामचरित मानस और कामायनी का मध्यान्तर वर्ती विश्वस्तरीय महान् काव्य है।
                कुल मिलाकर, मध्यकाल के कबीर, जायसी, तुलसी, रहीम एवं बिहारी मेरे अनन्त रचनाकाश के अनवरत देदीप्यमान पाँच सितारे हैं। इन पंच कवि रत्नों से लोक-मन इतना आलोकित और प्रभावित है कि बीसवीं सदी के एक श्रेष्ठ दोहाकार श्रीराम 'मधुकर' को भी यही कहना पड़ा-
                                दोहन के सिरमौर हैं, 'मधुकर' पाँच फकीर।
                                तुलसि, बिहारी, जायसी, रहिमन और कबीर।।
                ...मेरे सारे संवेदन, मानव-जीवन से संवेदित हैं। मेरे समस्त स्पन्दन समाज से स्पन्दित हैं। अगर मैंने मानवीय सुखों में हँसी के हरसिंगार खिलाये हैं, तो उसके दु:ख में सहभागी होकर आँसुओं के मोती भी बगराये हैं। मैं सत्यं, शिवं, सुन्दरम् का उपासक तथा मानव मात्र का अनन्य शुभचिन्तक हूँ। समय-समय पर मैंने लोगों को मन्त्र के समान प्रभावित एवं सक्रिय किया है। जन-मन को सकर्मक प्रेरणा देने के क्षेत्र में और कोई काव्य-शिल्प मेरी समता में नहीं ठहरता। इस प्रकार के बहुसंख्यक प्रसंग और सम्बन्धित घटनाएँ मेरी स्मृतियों में निरन्तर प्रवाहित हैं।
                कविवर चन्द बरदाई के मुख से निकलकर मैंने अन्तिम हिन्दू सम्राट् पृथ्वीराज चौहान को 'मत चूकने' की प्रेरणा दी थी-
                                चार बाँस, चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान।
                                ता ऊपर सुलतान है, मत चूक्कै  चौहान।।
 विश्वकवि तुलसी के हृदय में जो भक्ति-विस्फोट रत्नावली के व्यंग्य-कटाक्ष से हुआ था, उसे भी लोक ने मेरे साँचे में ढाल दिया है-
                                हाड़-माँस की देह ये, तामै ऐसी प्रीति।
                                जो होती श्रीराम मैं, तो काहे भयभीति।।
                अपनी कन्या के विवाह-हेतु आर्थिक कामना लेकर आये हुए व्यक्ति को तुलसी ने मेरे अद्र्धरूप 'सुरतिय, नरतिय, नागतिय अस चाहत सब कोय' के साथ अपने मित्र अब्दुर्रहीम खानखाना के पास भेज दिया। रहीम ने उसकी वैत्तिक समस्या के साथ-साथ मेरे पूर्वाद्र्ध में उत्तराद्र्ध-'गोद लिए हुलसी फिरैं, तुलसी सो सुत होय'जोडऩे की समस्या का भी समाधान कर, उसे तुलसी के पास ससम्मान वापस लौटाया। आज का विद्यार्थी मेरे उक्त रूप में ही गोस्वामी जी की माँ का नाम जान पाता है। बाबा तुलसी ने मनसबदारी के निमित्त अकबर के आमन्त्रण पर अपना सात्विक स्वाभिमान भी मेरे द्वारा ही प्रेषित किया था-
                                हौं चाकर श्रीराम को, पटो लिखो दरबार।
                                तुलसी अब का होइंगे, नर के मनसबदार।।
                जब राजस्थान के शीतल भाट तुलसी से मिले, तब उन्होंने महाराणा प्रताप सिंह से नाराज होकर अकबर से मिल जाने वाले शक्तिसिंह के नाम मुझे संदेश रूप में भिजवाया। जिसे पाकर शक्तिसिंह के अन्तस्तल में भ्रातृपे्रम का सूखता हुआ बिरवा पवित्र प्रेरणाभिषेचन से पुन: लहलहा उठा और उन्होंने हल्दी घाटी के युद्धान्त में महाराणा की प्राणरक्षा की-
                                सघन चोर मग मुदित मन, धनी गही ज्यों फेंट।
                                त्यों सुग्रीव-विभीषणहिं, भई भरत की भेंट।।
                तुलसी की अपने आराध्य के प्रति अव्यभिचारिणी निष्ठा का सम्प्रेषण भी मैंने ही किया, जो वृन्दावन में बाँकेबिहारी के समक्ष प्रकट हुई थी-
                                का बरनौ छवि आपकी, भले बने हो नाथ।
                                तुलसी-मस्तक तब नवै, धनुष-बाण लेउ हाथ।।
                इसे आधुनिक वैष्णव कवि मैथिलीशण गुप्त ने 'द्वापर' के मंगलाचरण में यों व्यक्त किया है-                   'धनुर्बाण वा वेणु लो, श्याम रूप के संग।
                                मुझ पर चढऩे से रहा, राम दूसरा रंग।।'
                तुलसी की निर्वाण तिथि को भी मैंने सहेजा है-
                                सम्वत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
                                श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।
एक ओर समुदात्त भावों का अक्षय कोष सौंपकर कवियों को मैंने सभा रत्न बनवाया, उन्हें पुरस्कार/पारितोषिक दिलवाये, दूसरी ओर गंग-जैसे महाकवि को भावावेश में आकर सकल सभा के अपमान के दण्डस्वरूप हाथी के पैरों तले कुचलते देखा-
                                कब-कब भँड़ुआ रण चढ़े, कब-कब बोली बम्ब।
                                सकल सभाहि प्रणाम कै, विदा होत कवि गंग।।
                जहाँ मैंने तलवार और कलम को साथ-साथ चलाने वाले रहीम के दानी दिनों का अवलोकन किया, वहीं नियति-गति-ग्रस्त-'माँगि मधुकरी खाँहि' उनके दुर्दिनों का भी अनुभव मेरे पास है। रहीम से सम्बद्ध अनेक किम्वदन्तियाँ मेरे साथ जुड़ी हैं, जिनमें कहीं वे रीवाँ नरेश के पास मुझको संस्तुति में भेजकर याचक को धन दिलवाते हैं-
                                चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
                                जापर विपदा परत है, सो आवत यहि देस।।
                कहीं चितौड़ के राणा अमरसिंह को प्रोत्साहित करते हैं-
                                घर रहसी, रहसी धरम, खिस जासे खुरसाण।
                                अमर विसम्भर ऊपरै, नहचौ राखो राण।।
                और कहीं पूछे जाने पर-'जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार'-बिना संकोच कह उठते हैं-'रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार महिं।'
                लो, मैं तो भूला ही जा रहा था कि भारत में उर्दू काव्य के प्रवर्तक अमीर खुसरो की भी असीम कृपा मुझ पर रही है। अपने सद्गुरु ख्वाजा निजामुद्दीन अवलिया की समाधि के प्रथम दर्शन पर उन्होंने जो रहस्यगर्भित उद्गार व्यक्त किए थे, वे अमर हो गये-
                                गोरी सोई सेज पै, मुख पर डारे केस।
                                चल 'खुसरो' घर आपने, रैन भई चहुँ देस।।
                आज भी उर्स के उद्घाटन में उनका प्रयोग वैसे ही होता है, जैसे अंत्याक्षरी का प्रारम्भ-''शुरू करो अंत्याक्षरी, लेकर हरि का नाम। समय बिताने के लिए करना है कुछ काम।''
                                आचार्य केशवदास का केश-विषयक क्षोभ मुझसे ही ओत-प्रोत है-
                                'केसव' केसन अस करी, रिपुहू जस न कराहिं।
                                चन्द्रमुखी-मृगलोचनी, बाबा कहि-कहि जाहिं।।
                इसे यह लोकदोहक और स्पष्ट करता है-'सेत-सेत हैं सब भले, सेत भले नहिं केस। नारी नवै न रिपु डरै, न आदर करै नरेस।।' मैंने ही उनकी प्रेयसी राय प्रवीन को जूठी पत्तल का हवाला देते हुए तत्कालीन बादशाह की वासना का शिकार होने से बचाया था-
                                विनती राय प्रवीन की, सुनिए साहजहान।
                                जूठी पत्तल खात है, वारी, वायस, स्वान।।
                युगकवि बिहारी ने अपनी अन्योक्ति की गुलेल में मुझे गुटकों की भाँति रखकर जब मानवीय जीवन के क्षेत्र में फेंका, तो जयसिंह के नवोढ़ापरक मोहपशु और छत्रपति शिवाजी तथा जयसिंह के बीच सम्भावित युद्ध के भाव-ढोर ऐसे भागे कि पीछे मुडक़र देखने तक का साहस न कर सके-
                                नहिं परागु, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।
                                अली कली ही सौं बंध्यो, आगै कौन हवाल।।
                                स्वारथु सुकृतु, , श्रमु वृथा, देयि विहंग विचारि।
                                बाज पराऐं पानि परि, तू पंछीनु, न मारि।।
                ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न रीतिमुक्त कवि आलम के धर्मान्तरण के मूल में भी मैं ही हूँ। उन्होंने एक बार 'कनक छरी-सी कामिनी, काहे को कटि छीन'-इतना लिखकर एक पर्ची अपनी पगड़ी के खूँट में बाँधकर भुला दी। रँग-रेजिन शेख ने रँगने से पूर्व पगड़ी की उस गाँठ को खोलकर पढ़ा और उसमें दूसरी पंक्ति 'कटि को कंचन काटि विधि, कुचन मध्य धरि दीन।' जोडक़र रँगने के बाद पगड़ी में यथावत् बाँधकर लौटा दिया। फिर कभी याद आने पर आलम ने जब उसे पढ़ा-तो वे शेख की प्रातिभ ऐश्वर्य से आशीर्षवाद अभिभूत हो उठे। उसकी माँ से उन्होंने उसका हाथ माँगा तथा शर्तपूर्ति में धर्म बदल लिया।
                ...भारतेन्दु जी ने निजभाषा-उन्नति का कार्यभार मुझे सौंपकर आधुनिक हिन्दी अभ्युत्थान की पृष्ठभूमि तैयार की। पं.प्रताप नारायण मिश्र, पं.बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमधन', ठा.जगमोहन सिंह और रायदेवी प्रसाद 'पूर्ण' के विविधायामी उद्गार मेरे द्वार से साहित्य-संसार में संचरित हुए। लाला भगवान दीन, कविवर बंन्धु, बाबू किशोरचन्द्र कपूर 'किशोर', पं.नाथूराम शर्मा 'शंकर', पं.रूपनारायण त्रिपाठी इत्यादि ने भी अपने-अपने रचना-जगत् में मेरा प्रचुर उपयोग किया। अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध', वियोगी हरि, दुलारेलाल भार्गव, शिवरत्न शुक्ल 'सिरस' सेंगर तथा राजेश दयालु 'राजेश' ने रीतिकालोत्तर सतसई-परम्परा के अभिनव क्षितिज उद्घाटित किये और राजाराम शुक्ल 'राष्ट्रीय आत्मा' ने केवल आँखों के वर्णन में ग्यारह सौ ग्यारह बार मुझको प्रस्तुत करके साहित्यिक क्षेत्र में एक ऐतिहासिक, विलक्षण एवं रेखांकनीय कार्य निष्पन्न किया। द्विवेदी युग में मैथलीशरण गुप्त और छायावाद में प्रसाद जी का विशेष सानिन्ध्य मुझे प्राप्त रहा।
                प्रयोगवाद-नई कविता के जमाने में अन्य छंदों के समान मुझको भी उखडऩा तथा भूमिगत होना पड़ा, लेकिन मेरी दूर्वाधर्मिणी अस्मिता उपेक्षा के पत्थरों तले दबकर भी अंकुरण-शील रही, फलत: अज्ञेय और धूमिल प्रयोगों के युग में भी मैंने सामान्य जनों, धार्मिक-साहित्यिक मंचों एवं लोक-सुभाषितों से अपनी ज्ञेयता, गेयता तथा उज्जवल छवि अक्षुण्ण रखी। आयातित काव्य-मूल्यों का मोह-भंग होते ही अथच परकीयता का कुहासा छटते ही भारतीय छंदों पर लादी या थोपी गई कालापानी की सजा पश्चात्ताप का विषय बनी और नवगीत, $गज़ल, मुक्तक, कवित्त एवं प्रबंधकाव्यों में फिर से छंद को प्रतिष्ठा दी जाने लगी। मेरी-सृजन-जिजीविषा भी नये युग की नयी भावभूमि पर नये-नये अन्दाजों के साथ सम्मानित-पुरस्कृत हो उठी।
                आज के व्यस्त-व्यापृत युग में मैं पूर्णत: प्रासंगिक हूँ, क्योंकि स्वल्प समय और कम से कम शब्दों में मैं ऐसी धारदार बातें कर लेता हूँ, जो हमेशा-हमेशा के लिए सुधियों के गाँवों में अपने डेरे डाल दें। ज्ञापन-विज्ञापन के इस दौर में भी दृश्य-परिदृश्यों के सूक्त-शौक्तिक मेरे शुक्ति-व्यक्तित्व में ढले बिना पानीदार नहीं हो पाते। इसीलिए समस्या-जटिल अधुनातन, पुरातन की ही भाँति मुझको कण्ठस्थ किए हुए है, गुनगुनाता है तथा बार-बार गाता है।
                हिन्दी काव्य के रीतिकाल तक हास्यरसीय रचनाएँ अपवाद-स्वरूप भले ही मिल जायें, उनका पर्याप्त रूप उपेक्षित अथा अनुपलब्ध है। आजकल की मंचीय कविता के समकक्ष रीतिकाव्य में भड़ौआ अवश्य लिखे गये, पर अश्लीलत्व एवं ग्राम्यत्व-ग्रस्त होकर वे इतने अधिक भोंडे और भदेस हो गए हैं कि उन्हें कविता कहना भी सरस्वती का अपमान है। आधुनिक हिन्दी-कवियों का ध्यान इधर गया और उन्होंने पर्याप्त हास्य-व्यंग्य लिखकर एक राहित्य को साहित्य में परिणत कर दिया। जैसे दूसरे मनोविकारों को चारुता देकर मुखर करने में मैं अग्रणी रहा हूँ, वैसे ही वर्तमान हास्य की भी पीठ मैंने ठोकी है। मेरे वरदहस्त की स्नेहिल छाया में उसका अधिकांश विकास लोक-व्याप्ति की दिशा में अग्रसर है। आचार्य वचनेश, चोंच, वंशीधर शुक्ल, रमई काका, काका हाथरसी, शारदा प्रसाद 'भुशुण्डिÓ, बेढ़ब बनारसी इत्यादि ऐसे अनेक कवि हैं, जिनकी रचनाएँ पढ़/सुनकर आप हँसते-हँसते लोट-पोट हो जायेंगे। आजकल कई समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं ने हँसने-हँसाने का काम ही मुझे दे दिया है, इसमें कुण्डलिया एवं छक्का भी मेरा हाथ बटा रहे हैं।
                और जब बीसवीं सदी समापन में थी-भारत के दिल दिल्ली में मेरी धडक़नें सत्वर हो उठी। बहुमुखी प्रातिभ श्री देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' के नवगीत का सारस्वत रथ मेरे प्रशस्त पथों की ओर मुडक़र, आधुनिक जीवन-मूल्यों की अवतारणा के गन्तव्यों के प्रति गत्वर हो चुका है। इन्द्र जी ने ढाई हजार संख्यात्मक सृजन-सुमन मुझे अर्पित किये हैं। इस पुरोधा कवि के द्वारा भारतीय संस्कृति के लग्रमण्डप के तले सप्तपदियों के आयोजन का आमंत्रण पाते ही देशभर के सात-सात काव्य-महारथियों की प्रतिभांगनाये मुझसे प्रणय-परिणय के लिए उत्कण्ठित-उत्कलित तथा सफलमनोरथ हुई हैं।    
...चलते-चलते कुछ महत्वपूर्ण बातें और कहना चाहूँगा-कवि की कीर्ति और सफलता इस तथ्य पर अवलम्बित है कि उसने कैसा लिखा? न कि इस बात पर कि कितना लिखा? अपने हजारों वर्ष के जीवन में मैंने ऐसे अनेक अनुभव एवं उदाहरण पाये हैं, जिनमें 'परिमाण' पर 'गुण' भारी पड़ा है। 'फैलाव' पर 'गंभीरता' की विजय हुई है। पोथी पर पोथी लिखते चले जाने वालों को समष्टि हृदय ने किनारे कर दिया, पर छोटे-से खण्ड काव्य 'सुदामा चरित' के प्रणेता नरोत्तमदास को वह अकूत और कालातीत स्थान दिए हुए है। कई-कई सतसइयों के लिक्खाड़ों को काल का निर्बन्ध प्रवाह अपने साथ विस्मरण-सागर में बहा ले गया, किन्तु गुलाम नबी 'रसलीन' की साधना से सपुष्ट मैं एकाकी ही परिवर्तनों के प्रभंजनों में दूब की भाँति अक्षत तथा नयनाभिराम हूँ। 'अंग दर्पण' ही नहीं, सुयश-दर्पण भी हूँ।
                मैं पानी के समान हूँ। चाहे जिस रंग में मुझे रंग लो, चाहे जिस भाव का भावक बना दो, चाहे जिस रंग का रसिक-कहीं भी मुझको पीछे नहीं पाओगे। फिर भी मेरी गागर में सागर भरने वाले काव्य-रीति के सिद्ध बिहारी युग-युगान्तरों में कहीं एक बार उत्पन्न होते हैं। शैल्पिक विन्यास की तुलना में मुझमें मार्मिक कथ्य की प्राण-प्रतिष्ठा, वास्तव में टेढ़ी खीर है। अपेक्षित तपश्चर्या के अभाव में मैं भी देवता के समान पूर्ण प्रसन्न नहीं हो पाता।