Tuesday, March 31, 2015

त्रिलोक सिंह ठकुरेला के पांच कुंडलिया

करता रहता है समय, सबको ही संकेत।
कुछ उसको पहचानते, पर कुछ रहें अचेत।।
पर कुछ रहें अचेत, बंद कर बुद्धि-झरोझा।
खाते रहते प्राय, वही पग-पग पर धोखा।
ठकुरेला कविराय, मंदमति हर क्षण डरता।
जिसे समय का ज्ञान, वही निज मंगल करता।।

तिनका तिनका कीमती, चिडिय़ा को पहचान।
नीड़ बने तिनका अगर, बढ़ जाता है मान।।
बढ़ जाता है मान, और शोभा बढ़ जाती।
होता नव-उत्कर्ष, जिंदगी हँसती गाती।
ठकुरेला कविराय, सार्थक है श्रम जिनका।
पा उनका सानिध्य, कीमती बनता तिनका।।

महँगाई ने कर दिया, महँगा सब सामान।
तेल, चना, गुड़, बाजरा, गेहूँ, मकई, धान।।
गेहूँ, मकई, धान, दाल, आटा, तरकारी।
कपड़ा और मकान, सभी की कीमत भारी।
ठकुरेला कविराय, डर रहे लोग-लुगाई।
खड़ी हुई मुँह फाड़, बनी सुरसा महँगाई।।

नारी की गाथा वही, यह युग हो कि अतीत।
सदा दर्द सहती रही, सदा रही भयभीत।।
सदा रही भयभीत, द्रोपदी हो या सीता।
मिले विविध संत्रास, दुखों में जीवन बीता।
ठकुरेला कविराय, कहानी कितनी सारी।
सहती आयी हाय, सदा से ही दुख नारी।।
 
गंगा थी जीवन नदी, हर लेती थी पाप।
झेल रही है आजकल, वह भीषण संताप।।
वह भीषण संताप, चिढ़ाते उसको नाले।
है इस जग में कौन, पीर जो उसकी टाले।
ठकुरेला कविराय, चलन है यह बेढंग़ा।
यमुना हुई उदास, बहाए आँसू गंगा।।

-त्रिलोक सिंह ठकुरेला, आबूरोड़

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