Saturday, May 23, 2015

हमीद जालंधरी की ग़ज़ल

डूबता देख के तूफां में सफीना अपना,
दोस्त आये हैं कि ठंडा करें सीना अपना|

छोड़कर शहर को जंगल में गुजारे सावन,
साल भर में है यही एक महिना अपना|

चार-सू गूँज रही है ये सदा बस्ती में,
रहियो हुश्यार कि दुश्मन है कमीना अपना|

तुम वो मुख्तार कि मुर्दों को जिला देते हो,
हम वो मजबूर कि मरना है न जीना अपना|

कोई सुनता नहीं दुनिया में फुगाने-दरवेश,
वही दावर है कि हक जिसने है छीना अपना|

रह गई पास फकत दौलते-इखलास 'हमीद'
बह गया सैले-हवादिस में दफीना अपना||


मुख्तार=अधिकर्ता 
फुगाने-दरवेश=सन्यासी की दुहाई 
दावर=न्यायकर्ता 
दौलते-इखलास=निश्छलता की दौलत 
सैले-हवादिस=दुर्घटनाओं की बाढ़ 
दफीना=गड़ा हुआ खजाना 





सईद कैस की ग़ज़ल

याद कर लेता हूँ उल्फत के फ़साने कितने,
मुझको मिल जाते हैं रोने के बहाने कितने\

उम्र उसने भी उम्मीदों में गंवायी सारी,
रंज हमने भी उठाये हैं न जाने कितने|

वस्ल की रुत भी गई हिज्र के मौसम भी गए,
हमने इस उम्र में देखे हैं ज़माने कितने|

दिल सा खुशफहम भला और कोई क्या होगा,
तुझसे मिलने के बनाता है बहाने कितने|

नज़अ के वक़्त मुझे आग लगा दे कोई,
लोग आयेंगे मिरा बोझ उठाने कितने|

ज़िन्दगी भर मुझे मायूस न होना आया,
हसले मुझको दिए मेरे खुदा ने कितने|

जब भी देखा किसी दीवार का साया ऐ 'कैस'
याद आये मुझे ग़ुरबत में ठिकाने कितने|

नज़अ=प्राणों का अंत 

फ़ातिमा हसन की ग़ज़ल

किससे बिछड़ी कौन मिला था भूल गई,
कौन बुरा था कौन था अच्छा भूल गई|

कितनी बातें झूठी थीं और कितनी सच,
जितने भी लफ़्ज़ों को परखा भूल गई|

चारों ओर थे धुंधले-धुंधले चेहरे से,
ख्वाब की सूरत जो भी देखा भूल गई|

सुनती रही मैं सबके दुःख ख़ामोशी से,
किसका दुख था मेरे जैसा भूल गई|

भूल गई हूँ किस से मेरा नाता था,
और ये नाता कैसे टूटा भूल गई||

अदा जाफ़री की ग़ज़ल

आख़िरी टीस आजमाने को,
जी तो चाहा था मुस्कराने को|

याद इतनी-सी सख्त-जां तो नहीं,
इक घरौंदा रहा है ढाने को|

संगरेजों में ढल गए आंसू,
लोग हँसते रहे दिखाने को|

ज़ख्में नग्ना भी लौ तो देता है,
इक दीया रह गया जलाने को|

जलने वाले तो जल-बुझे आख़िर,
कोई देता खबर ज़माने को|

कितने मजबूर हो गए होंगे,
अनकही बात मुंह पे लाने को|

खुलके हँसना तो सबको आता है,
लोग तरसते हैं इक बहाने को|

रेजा-रेजा बिखर गया इंसा,
दिल की विरानियाँ जताने को|

हसरतों की पनाहगाहों में,
क्या ठिकाने हैं सर छुपाने को|

हाथ काँटों से कर लिए ज़ख़्मी,
फूल बालों में इक सजाने को|

आस की बात हो कि सांस 'अदा'
ये खिलौने थे टूट जाने को||


संगरेजों=पत्थर के कण 
रेजा-रेजा=कण-कण


क़तील शिफ़ाई की ग़ज़ल

गरमी-ए-हसरत-नाकाम से जल जाते हैं,
हम चिरागों की तरह शाम से जल जाते हैं|

शमा जिस आग में जलती है नुमाइश के लिए,
हम उसी आग में गुमनाम से जल जाते हैं|

जब भी आता है तेरा नाम मेरे नाम के साथ,
जाने क्यों लोग तेरे नाम से जल जाते हैं|

तुझसे मिलने पे मुझे क्या कहेंगे दुश्मन,
आशना भी जब मेरे पैगाम से जल जाते हैं||
(क़तील शिफ़ाई पाकिस्तान के मशहूर शायर हैं, मोहे आई न जग से लाज, मैं इतन जोर से नाची आज कि घुँघरू टूट गए इन्ही की ग़ज़ल है)

Tuesday, May 12, 2015

दौर हवाओं का शीतल, फिर आने वाला है

दौर  हवाओं  का  शीतल,  फिर  आने वाला है

सूरज  फिर  चन्दा  से,  हाथ  मिलाने  वाला है


दु:ख की  जलती  धूप सिरों से अब हट जायेगी

सुख का  बादल  आसमान  पर  छाने  वाला है


जमीं   नही    पाँवों   के   नीचे   कांटे   बोयेगी

समय सब जगह हरियल  घास बिछाने वाला है


भूख   नही   निर्धन  बच्चों   को  आँख दिखायेगी

पोटली   वाला   बाबा,  रोटी   लाने   वाला  है


हर   बच्चा    बस्ता   लेकर   पढने   को  जायेगा

मजदूरी  का  बोझा,  बस   हट  जाने  वाला  है


नौकरियों के  लिये,   कोई  शिक्षित ना भटकेगा

हरेक  हाथ  को  रोजगार,  मिल   जाने वाला है


आग  दहेज  की कभी  किसी, बेटी पे ना आयेगी

फर्क बहू - बेटी   का  अब,  मिट जाने  वाला  है


भाई   भाई   के  बीच ,  ना  अब दीवारें  उट्ठेगी

हरदिल   सद् भावों  के,   बाग   लगाने वाला है


रिश्तों   की   मर्यादायें,   हर   कोई   निभायेगा

प्रेम,   प्यार,   भाईचारा,  फिर   आने  वाला  है


बड़े  बुजुर्गो   को   हरदम,   सम्मान   सभी  देगें

वृद्ध   आश्रमों   पर   ताला  लग   जाने वाला है


नीति,   नियम,  संस्कारों   के,  उपवन  महकेंगें

मानवता  का  फिर   परचम   लहराने  वाला है


संस्कार    अपने,   सारी    दुनिया   अपनायेगी

भारत  फिर  से  विश्व गुरु,  कहलाने  वाला  है

-ताराचन्द शर्मा "नादान"

ग़जल-डॉ.मीना नक़वी

सफ़र को पाॆँव के चक्कर तलाश करने हैं 

हमें खु़द अपने मकद्दर तलाश करने हैं

लबों पे प्यास सजा कर ख्य़ाल ये रखना 

कि बूँद में भी समन्दर तलाश करने हैं

जो मंजिलों की ज़मानत दें राहबर भी बनें 

हमें वो मील के पत्थर तलाश करनें हैं

सजा के ज़ेहन मे माज़ी की धुंधली तस्वीरें 

जो खो गये हैं वो मन्ज़र तलाश करने हैं


जिन्हें ग़ज़ल से मोहब्बत अदब सेे उल्फत हो 

ए "मीना" ऎसे सुखनवर तलाश करने है|

-डॉ. मीना नक़वी, अगवानपुर, मुरादाबाद 

Monday, May 4, 2015

ब्लैकमेल-डॉ.सुरेन्द्र मंथन

भजन चलने लगा तो मैंने सोचा, फिजूल रिक्शा पर आठ-दस रुपये फूँक देगा। सामान साइकिल के कैरियर पर लाद कर कहा-''चलो, बस स्टैंड साथ ही है, छोड़े आता हूँ।"
    भजन ने रास्ते में फिल्मी-पत्रिका खरीद ली। मैंने मन को समझाया-'चलो, सफर की बोरियत से बचेगा।'
   भजन जब भी आता, अनाप-शनाप पैसा बहाता रहता। राजकुमारों जैसा शाही दिल है उसका। दोस्तों के बीच बैठता है तो क्या मजाल कोई दूसरा बिल अदा कर जाए।
    एक मैं हूँ, पैसा-पैसा दाँत से पकडऩा पड़ता है। बड़ा होने की मजबूरी है। अब तो भजन शादी-शुदा है। उसका फर्ज़ नहीं बनता था, बापू को साथ ले जाने की बात कहता। कितना बढिय़ा बहाना है, 'यहाँ पोते-पोतियों में बापू का मन बहल जाता है।'
    घर पहुँचने पर पत्नी ने कहा-''क्या जरूरत थी कुली बन कर सामान ढोने की?"
    ''अरे भागवान, दस रुपये बच गए। चूल्हे अलग हुए तो क्या हुआ, घर का पैसा घर में रह गया।"
    ''तब पड़ोसियों की नम्बर दो कमाई पर क्यों चिढ़ते हो? काला धन ही सही, देश से बाहर तो नहीं जा रहा।"
    मुझेे महसूस हुआ, कोई मुझे लगातार ब्लैकमेल करता आ रहा है।
-डॉ.सुरेन्द्र मंथन

डॉ.लोक सेतिया 'तनहा' की ग़ज़ल

गम से इतनी मुहब्बत नहीं करते
खुद से ऐसे अदावत नहीं करते।
ज़ुल्म की इन्तिहा हो गई लेकिन
लोग फिर भी बगावत नहीं करते।
इस कदर भा गया है कफस हमको
अब रिहाई की हसरत नहीं करते।
आप हँस-हँस के गैरों से मिलते हैं
हम कभी ये शिकायत नहीं करते।
पाँव जिनके ज़मीं पर हैं, मत समझो
चाँद छूने की चाहत नहीं करते।
तुम खुदा हो तुम्हारी खुदाई है
हम तुम्हारी इबादत नहीं करते।
पास कुछ भी नहीं अब बचा 'तन्हा'
लोग ऐसी वसीयत नहीं करते।
-डॉ.लोक सेतिया 'तन्हा' ,फतेहाबाद



डॉ.श्याम सखा 'श्याम' की ग़ज़ल

जब कि हर दिल में प्यार रहता है
दिल क्यों फिर बेकरार रहता है
गुल गुलामी करे है मौसम की
मस्त हर वक़्त खार रहता है
इश्क माना बुरी है शय लेकिन
दिल पे कब इख़्ितयार रहता है
भूल जाते हैं दोस्त को हम लोग
दिल पे दुश्मन सवार रहता है
वक्त तो लौटकर नहीं आता
शेष बस इन्तजार रहता है
'श्याम' अहसान चीज है जालिम
जि़न्दगी भर उधार रहता है।
- डॉ.श्याम सखा 'श्याम'

उषा यादव 'उषा' की ग़ज़ल

आज भी जि़न्दगी का स$फर है वही
दाल रोटी की अब भी फिकर है वही
नींव घर की पसीने से जो सींचा था
उम्र बढ़ते ही अब दर-ब-दर है वही
यूँ सियासत ने फिर अपना रंग बदला है
दुुश्मनों में जो था-मोतबर है वही
इक परिन्दा नहीं ठँूठे से पेड़ पर
कल फलों से लदा था, शज़र है वही
चाँद पर हम पहुँच तो गये हैं मगर
जि़न्दगी की डगर पुर$खतर है वही
-उषा यादव 'उषा', इलाहाबाद


प्रो.रमेश सिद्धार्थ की ग़ज़ल

दिल के अँधिआरों में वो ख्वाबों का मंजर डूबा 
गम के सैलाब में अश्कों का समंदर डूबा 
एक एक करके बुझे सारे उम्मीदों के चिराग 
इतनी मायूसी की अरमानों का खंडर डूबा 
यार ने वार किया पीठ के पीछे से जब 
शर्म से लाल हो गद्दार का खंजर डूबा
हमसे मत पूछो कि है जाम ये कितना गहरा 
मय के प्याले के भंवर में तो सिकंदर डूबा 
देख कुदरत के हसीं, दिलनशीं नज्जारों को 
एक रूहानी-सी मस्ती में कलंदर डूबा 
चीखें बच्ची कि कपाती रहीं हर जर्रे को 
बास्तियां मौन थीं पर शोक में अम्बर डूबा
डूब जाऊँगा तेरी मदभरी आँखों में सनम
जैसे पीकर के गरल ध्यान में शंकर डूबा
-प्रो.रमेश सिद्धार्थ, गुडगाँव