Thursday, April 30, 2015

कुण्डलिया छंद


किसको दिखते हैं यहाँ, अपने अन्दर दोष|
कमी ढूंढकर गैर में, पाते सब संतोष||
पाते सब संतोष, मनुज की फितरत ऐसी |
अपनी जैसी सोच, सभी की दिखती वैसी|
कह यादव कविराय, बुरे सब दिखते जिसको|
उसकी घटिया सोच, भला वह कहता किसको?
                      2
किसे सुनाएँ द्रौपदी, अपने मन की पीर|
अब कौरव दरबार में, 'केशव' खींचें चीर||
'केशव' खींचें चीर, गई मर्यादा सारी|
करते हैं अपराध, आज तो भगवाधारी|
कह यादव कविराय, मनुज को सभ्य बनाएं|
यहाँ सभी विद्वान, बात हम किसे सुनाएँ||
-रघुविन्द्र यादव

Wednesday, April 29, 2015

हिम्मत को हथियार बनाले - ताराचन्द शर्मा "नादान"

पथिक, क्यूँ है व्यथित, गर राह है तेरी मुश्किल
न तज,  तू हौसला निज, पायेगा निश्चय मंजिल

पथ में  मिले  फूल  या  कांटे
सुख-दुःख तो  ईश्वर ने  बांटे
किसने अलग-अलग है  छांटें
चल, सबसे मिल साथ, सफर ना होगा बोझिल
पायेगा निश्चय मंजिल,   पायेगा निश्चय मंजिल

पग में  लाख  पड़े  हो छाले
हिम्मत को हथियार बनाले
मन  आशा का दीप जलाले
रुके,  पड़े जो थके,  बांह दे,  कर संग  शामिल
पायेगा  निश्चय मंजिल, पायेगा निश्चय मंजिल

जग में  कुछ ना लेकर आया
भला बुरा सब यहीं है पाया
फिर काहे की  है मोह माया
चले,  नही  कुछ  भले,  भलाई  संग में  ले चल
पायेगा निश्चय मंजिल,  पायेगा निश्चय मंजिल

ताराचन्द शर्मा "नादान"

Friday, April 24, 2015

दीपक तले अंधेरा- घमंडीलाल अग्रवाल

मशहूर पंडित दीर्घायुनंद के घर के बाहर बोर्ड लगा हुआ था-'यहाँ पर दीर्घायु प्राप्ति के लिए जाप किया जाता है। एक बार सेवा का मौका दें।Ó
वह सब कुछ समझते हुए भी समय लेकर एक दिन दीर्घायुनंद के पास गया। पंडित जी ने बताया-'आपकी राशि के अनुसार मंत्र की $कीमत बनती है ग्यारह हज़ार रुपये। कल मंत्रोच्चारण और पूजा-पाठ के अवसर पर यह राशि आप अदा कर दें।'
अगले दिन वह पंडित जी के घर पहुँचा। घर के बाहर जमा भीड़ ने बताया कि दीर्घायुनंद की 42 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई है।


-785/8, अशोक विहार, गुडग़ाँव

उत्कोच-दर्शन--डॉ.गार्गीशरण मिश्र 'मराल'

आप आश्चर्य करेंगे कि उत्कोच अर्थात घूस का भी कोई दर्शन हो सकता है! जी हाँ।
अपने इस दर्शन को समझाते हुए आर.टी.ओ. विवेकशरण जी कह रहे थे-'देखो भाई, मैं किसी का 
भी काम नहीं रोकता, उसे जल्दी से जल्दी निपटाता हूँ। क्योंकि काम में देर लगाना काम न करने के बराबर होता है। इतना ही नहीं फिर आपकी नीयत पर भी शक होने लगता है। इसलिए मैं काम शीघ्र निपटाता हूँ। फिर इस काम के बदले में उससे कोई कार्य-शुल्क की माँग भी नहीं करता। मेरी इस तत्परता से प्रसन्न होकर यदि कोई स्वेच्छा से कुछ दे देता है तो मैं उसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ। ऐसा धन मेरी समझ में विकार रहित शुद्ध दूध की तरह होता है। यह उत्कोच का उत्तम प्रकार है। उत्कोच का मध्यम प्रकार वह होता है जब संकेत करने पर वह मिल जाये। उदाहरण के लिए जिसका काम मैंने तत्परता से कर दिया जब वह इसके बदले केवल धन्यवाद देकर जाने लगता तो मैं संकेत करता हूँ- 'मैंने आपका काम शीघ्र निपटा दिया। क्या इसके बदले मुझे पुरस्कार नहीं मिलना चाहिए?Ó इस संकेत से प्रेरित होकर यदि वह मुझे कुछ पत्र-पुष्प प्रदान कर देता है तो उसे मैं शुद्ध जल समझकर स्वीकार कर लेता हूँ। यह उत्कोच का मध्यम प्रकार है। उत्कोच का एक तीसरा प्रकार भी होता है, इसमें काम के बदले दाम पहले ही सौदेबाजी करके तय कर लिया जाता है। इसमें यह साफ कर दिया जाता है कि बिना दाम के काम नहीं होगा। इस शर्त के साथ काम करके जो उत्कोच प्राप्त किया जाता है, वह अधम कोटि का होता है। इसे मैं कभी स्वीकार नहीं करता। क्योंकि वह शुद्ध खून की तरह होता है और मैं खून चूसने वाला असुर अधिकारी नहीं हूँ।Ó 
इस वक्तव्य के साथ विवेकनारायण जी ने अपनी तकरीर समाप्त की।

-1436-बी, सरस्वती कॉलोनी, चेरीताल वार्ड, जबलपुर

अध्यापक बनने और होने के बीच-मधुकांत

जामगढ़/5 सितम्बर, 2005
आदरणीय गुरुजी,
     प्रणाम! मैं आपका शिष्य राधारमण उर्फ राधे हूँ। शायद आपने मुझे विस्मृत भी कर दिया होगा। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि एक अध्यापक के जीवन में तो हजारों शिष्य आते हैं, चले जाते हैं, परन्तु शिष्यों के हृदय पटल पर अपने गुरुओं की तस्वीर इतने गहरे से अंकित होती है कि जीवन पर्यन्त उनकी स्मृति बनी रहती है। अध्यापक तो मेरे जीवन में सैंकड़ों आये। कुछ हल्की, कुछ गहरी, कुछ पीड़ादायक, कुछ सुखद स्मृतियाँ सबकी संजोयी हुई हैं। उन सब अध्यापकों के बीच गुरु जी तो केवल आप बने। कभी-कभी हम सहपाठी मिलते हैं तो आपका जिक्र श्रद्धापूर्वक करते हैं जबकि अन्य शिक्षकों पर उपहास भी करते हैं।
     सबसे पहले तो मैं आपको अपनी पहचान कराने का प्रयत्न करता हूँ। वर्ष दो हजार में मैंने आपके विद्यालय से बारहवीं कक्षा पास की थी। मैं मेधावी छात्र तो नहीं था, परन्तु प्रारम्भ के आठ-दस छात्रों में मेरा नाम रहता था। मेरा रंग काला था इसलिए आप मुझे राधारमण न कहकर साँवरिया कहा करते थे। भगवान ने मुझे सुरीला कंठ दिया है इसलिए प्रत्येक शनिवार की बाल सभा में आप मुझसे गांधी जी का प्रिय भजन सुनते थे, वैष्णव जन...।
    गुरुजी, मैं आपको पत्र के माध्यम से एक शुभ समाचार दे रहा हूँ कि मैं एक गाँव के सरकारी स्कूल में नियुक्त हो गया हूँ। अध्यापक होने के लिए मुझे आपके अनेक अनुभव याद हैं और भविष्य में भी आपसे मार्गदर्शन लेता रहूँगा। 
     शनिवार को बाल सभा में एक दिन आपने सभी बच्चों से पूछा था कि वे बड़े होकर क्या बनना चाहते हैं? मेरा नम्बर आया तो मैंने झट से कह दिया था-'गुरुजी, मैं बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता हूँ।Ó उन दिनों वहाँ डॉक्टर को बहुत सम्मान मिलता था। इन्हीं सपनों के साथ मैंने विज्ञान की पढ़ाई भी आरम्भ की परन्तु आज मैं अनुभव करता हूँ कि भगवान ने मुझे इतनी तीव्र बुद्धि नहीं दी इसलिए विज्ञान को बीच में छोडक़र मैं केवल बी.ए. कर पाया। जब कोई दूसरा अच्छा विकल्प न मिला तो बी.एड. करके अध्यापक बनना ही सम्मानजनक लगा और वह मंजिल मैंने पा ली। मैं तो अध्यापक बन गया गुरुजी, परन्तु आप तो बड़े कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। मैं यह तो नहीं जानता कि आपका अध्यापक बनने में क्या उद्देश्य रहा होगा। जो भी हो गुरुजी, मैं अब एक अच्छा अध्यापक बनना चाहता हूँ, कृपया इसके लिए मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान करें।
     अनेक बार सुना और पढ़ा भी है कि गुरु संसार का सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति है। वह सच्चा ज्ञान देकर भगवान से मिला सकता है। न जाने मेरा भ्रम है या यथार्थ आज तक मुझे तो अपने विद्यालय में और आस-पास ऐसा गुरु दिखाई नहीं दिया। फिर वह किस गुरु के विषय में लिखा है? मेरी तो समझ में नहीं आता कि वह गुरु कैसे बना जा सकता है?
    'जो कुछ कर नहीं सकता वह अध्यापक बनता है।' मुझे तो इस बात में कोई दम नहीं दिखाई देता क्योंकि अध्यापक बनना इतना आसान नहीं है कि जो चाहे वही बन जाये। सच मानना गुरुजी अध्यापक बनने की प्रक्रिया में मेरा शरीर छिल-छिल कर लहुलुहान हो गया है। अध्यापक बनने के लिए लोग दोनों जेबें भरे घूमते रहते हैं। मेरे पिताजी भी यही कहते थे-''बेटे शुरू में आधे किले की मार है फिर सारी उम्र मौज करेगा।" न तो उस दिन और न आज तक मैं उस 'मौज' का अर्थ समझ पाया। यह तो सच है अध्यापक कुछ न करे तो कोई पूछता नहीं, परन्तु कर्र्मठ अध्यापक का काम कभी पूरा नहीं हो सकता। बल्कि करने वाले को अधिक काम दिया जाता है और वही उसकी प्रतिष्ठा है। 
    आज दुनिया में सब विद्वान हैं सब दूसरे को उपदेश देना चाहते हैं कोई दूसरे की बात सुनना ही नहीं चाहता। यह तो अबोध विद्यार्थी हैं जो हमारी सारी अच्छी-बुरी बातों को सुनते रहते हैं और बिना किसी विरोध के स्वीकारते रहते हैं। एक और बड़ा परिवर्तन आया है आजकल के विद्यार्थी हमें सर जी, मैडम जी कहकर संबोधित करते हैं गुरुजी शब्द में जो आदर व निष्ठा थी वह इस हिन्दी-अंग्रेजी के मिले-जुले शब्दों में कहाँ? मैंने बदलाव करने का सोचा था, परन्तु मुख्याध्यापक ने समझाया-'राधारमण सारी दुनिया अंग्रेजी के पीछे दौड़ रही है। अच्छे परिवारों के सब बच्चे प्राइवेट स्कूलों में चले जाते हैं। सरकार भी प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले में अपने स्कूलों में कुछ सुधार करना चाहती है। इसीलिए मेरा सुझाव है, इस परिवर्तन को रहने दो।Ó  गुरुजी मैं भी क्या बक-बक लेकर बैठ गया। ये सब पढक़र आप मुझ पर हँसेंगे। परन्तु मैं भी क्या करता बहुत दिनों से आपके सामने बातें करने का मन हो रहा था, आज पत्र लिख कर मन संतुष्ट हो गया। यदि आपको कष्ट न हो तो आशीर्वाद स्वरूप कुछ पंक्तियाँ मेरे लिए अवश्य लिख भेजियेगा।
आपका 
राधारमण 'साँवरिया'
सांकला, 2 अक्टूबर 2005
प्रिय राधारमण,
    खुश रहो। तुम्हारा पत्र मिला। समझ में नहीं आया मुझे पत्र लिखने का तुम्हारा क्या प्रयोजन रहा है। वैसे तो मै तुम्हें पहचानने में असफल रहता परन्तु गाँधी जी के भजन ने तुम्हारी स्मृति को ताजा कर दिया। तुम्हारे कण्ठ की आवाज सुनकर उन दिनों मैं सोचता था कि तुम एक अच्छे गायक बनोगे परन्तु बहुत कठिन है कि आदमी का शौक और व्यवसाय एक हो जाये। खैर वक़्त ने तुम्हें अध्यापक बना दिया, परन्तु प्रिय राधारमण अब केवल अध्यापक नहीं एक शिक्षक बन कर दिखाना।
    तुमने मेरे शिक्षक बनने की प्रक्रिया की चर्चा की। यह पूर्णतया सच है कि मेरे घोर व्यवसायी घराने में कोई अध्यापक बनने की कल्पना भी नहीं कर सकता। पारिवारिक परम्परा के अनुसार व्यवसाय करना, धन कमाना, धनवान होने की प्रतिष्ठा अर्जित करना मेरे लिए सरल ही था और अनुकूल भी। परन्तु मुझे लगा था कि प्रभु ने मुझे लिखने के लिए भेजा है। लेखन और अध्ययन दोनों कार्य अध्यापक के अनुकूल बैठते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षण को मैं श्रेष्ठ कार्य मानता हूँ। सुबह-सुबह निश्चित समय पर विद्यालय में प्रवेश। छात्रों-अध्यापकों का आपसी अभिवादन, फिर नन्हे-मुन्ने बच्चों के साथ सामूहिक प्रार्थना। दिन-भर ज्ञान-विज्ञान की चर्चा, अध्यापकों द्वारा नैतिक, श्रेष्ठ नागरिक बनने पर बल। शरीर को हष्ट-पुष्ट बनाने के लिए क्रीड़ा-अभ्यास, छात्रों में निहित नाना प्रकार की प्रतिभाओं का विकास- दुनिया में इससे अच्छा काम क्या हो सकता है?
     आज भी समाज में अध्यापक का चाहे जो स्थान हो, परन्तु अन्य व्यवसाय का नौकरी से वह अधिक ईमानदार और विश्वसनीय है। स्कूल में उपस्थित अध्यापक सच बोलने की बात सिखाता है या चुप रहता है, परन्तु झूठ बोलने की प्रेरणा कभी नहीं देता।
    प्रिय राधारमण, शिक्षक बनना तो आसान है, परन्तु शिक्षक होना मुश्किल है। समाज अध्यापक को एक विशिष्ट प्राणी मानता है और यह सच भी है, क्योंकि छात्रों के लिए अध्यापक अनुकरणीय होता है। इसलिए अनेक बार अध्यापक को अपने मन के विपरीत वह करना पड़ता है जो समाज के लिए श्रेष्ठ हो।
    तुम नये-नये अध्यापक बने हो। तुम्हारे सम्मुख अनेक प्रकार के अध्यापक आयेंगे, परन्तु तुमको एक विशिष्ट कर्म योगी अध्यापक बनना है ताकि दूसरे तुमसे प्रेरणा लें। अधिक से अधिक समय अपने शिष्यों के साथ रहना है। भययुक्त अनुशासन नहीं बनाना भयमुक्त शिक्षण करना है। प्रत्येक छात्र में एक विशिष्ट प्रतिभा है। तुम्हें उसको दिशा बोध कराना है। उसकी जिज्ञासाओं को खुशी-खुशी शांत करना है, सभी शिष्यों को अपनी औलाद के समान मानना है। सच कहता हूँ तुम्हें इतनी खुशी व संतोष मिलेगा कि दुनिया का कोई भी सुख उतना आनंद नहीं दे पाएगा।
     जानते हो भरे बाजार में गुजरते हुए जब एक सेठ-नुमा शिष्य ने दुकान से निकलकर सबके सामने मेरे पाँव छुए तो मुझे बहुत खुशी हुई थी। मन हुआ था कि चिल्लाकर सबके सामने कहूँ-'दुनिया वालो देखो, किसी भी व्यवसाय या नौकरी में इतना गौरव और सम्मान है जो आज मुझे अध्यापक बनने पर मिला है।Ó अध्यापक दृढ़ संकल्प करके अपने मन में ठान ले तो कुछ भी बदल सकता है। अपने शिष्यों को बदलना तो बहुत आसान है, क्योंकि वे तो कच्ची मिट्टी के बने हैं, परन्तु अध्यापक तो उनके माँ-बाप को भी बदल सकता है। क्योंकि अभिभावकों की चाबी (बच्चे) उसके हाथ में है। मालूम नहीं तुम्हें याद है कि नहीं जब मैं 1998 में इस विद्यालय में आया था तो कई अध्यापक व बहुत सारे छात्र धुम्रपान करते थे। विद्यालय में एक माह तक संस्कार उत्सव चलाया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य धुम्रपान रोकना था। जब मैंने बच्चों के माध्यम से यह बात उनके घरों में भेजी कि जिनके परिवार में एक व्यक्ति भी धुम्रपान करता है तो परिवार के नन्हे-मुन्ने बच्चों को भी न चाहते हुए धुम्रपान करना पड़ता है। उनके अभिभावक ही उनके नाजुक फेफड़ों को खराब कर रहे हैं। परिणाम जानने के लिए संस्कार उत्सव समापन पर अभिभावकों की प्रतिक्रिया जानी, तो आश्चर्यजनक परिणाम सामने आये। बच्चों ने जिद्द करके, प्रार्थना करके अपने घर में धुम्रपान बंद करवा दिया। स्कूल में धुँआ उड़ाना वैसे ही बंद हो गया। ऐसी अपूर्व शक्ति संजोए हैं अध्यापक।      
   प्रिय राधारमण, मैं इसलिए अध्यापक बना कि साहित्य साधना के लिए पर्याप्त समय और उपयुक्त वातावरण मिल जाएगा, परन्तु अध्यापक बनने के बाद मैंने समझा कि अध्यापक के पास तो समय का बड़ा अभाव है। वह कितना भी कार्य करे वह पूरा हो ही नहीं सकता। साहित्य सृजन के लिए अन्दर की कुलबुलाहट जो हिलोर मारकर कागज पर उतारना चाहती थी, वह छात्रों के साथ अभिव्यक्त होकर शांत हो जाती। इसलिए अध्यापक बनकर खूब लिखने का जो विचार था उसके लिए न मन ही तैयार होता और न समय ही मिलता। अब तुम केवल शिष्य नहीं हो, मेरे अनुरूप, एक शिक्षक का, राष्ट्र निर्माता का कार्यभार तुम्हारे कँधे पर आ गया है। मेरा सम्पूर्ण सहयोग और आशीर्वाद तुम्हारे लिए है।
     बहुत-बहुत शुभकामनाओं के साथ।
तुम्हारा
विद्या भूषण
जामगढ़ 5 सितम्बर, 2010
आदरणीय गुरुजी,
     प्रणाम। लगभग पाँच वर्ष पूर्व आपका पत्र मिला था। वह पत्र नहीं मेरे लिए गीता-अमृत था। जब कभी मन कुंठित व व्यथित होता तो आपके पत्र को निकाल कर पढ़ लेता था। सच मानना पत्र पढक़र मेरा मन खुशी व उत्साह से भर जाता और मुझे सही दिशा का बोध करा देता। आपने इतना जीवंत व पे्ररणादायक पत्र लिखकर मुझ जैसे पूर्व शिष्य पर जो अनुकम्पा की है वह केवल मेरे लिए नहीं, सभी शिष्यों के लिए आशीर्वाददायक रहेगी। अध्यापक बनने के बाद पिछले पाँच वर्षों में मैंने एक शिक्षक के कार्य को करीब से देखा है। शिक्षण कार्य पहले से दुरुह हो गया है। कक्षाओं में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसको देखने के लिए शिष्य आए, वहाँ सुनने के लिए कुछ भी नवीन व रोचक नहीं है जो छात्र के कानों को आकर्षित करे, वहाँ करने को कुछ नहीं है जो फलदायक या प्रेरणादायक हो। प्रारम्भ में लगभग आधे छात्र स्कूल में प्रवेश करते थे। जो आते वो भी एक दो घण्टी इधर-उधर घूमकर चले जाते। अद्र्धावकाश के समय पूर्णावकाश जैसा वातावरण बन जाता।
    छात्रों को जोडऩे के लिए मैंने अभिभावकों के साथ सम्पर्क किया। यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि आस-पास से आने वाले गाँवों के कुछ बच्चों का निरन्तर अनुपस्थित रहने से स्कूल से निष्कासन हो गया है, परन्तु वे अपने अभिभावकों से प्रतिदिन झूठ बोलकर पढ़ाई के लिए खर्च ले आते और सारा दिन बाजार, स्टेशन, सिनेमाघर में घूमकर घर लौट जाते। जब अभिभावकों को यह पता लगा कि स्कूल में उनका नामांकन भी नहीं तो उन्होंने दाँतों तले उँगली दबा ली।
     कुछ अभिभावकों को सजग करके, छात्रों को समझाकर, खेलों के माध्यम से बच्चों को स्कूल से जोड़ा गया। नियमित प्रार्थना होने लगी। स्कूल में फूल-पौधे लगाये गये। स्कूल-भवन में पहली बार सफेदी हुई, लैब और पुस्तकालय की धूल झाड़ी गई। जहाँ गाली-गलौच व फिल्मी गानों का चलन था वहाँ भजन, प्रार्थना होने लगी। धीरे-धीरे वह भवन स्कूल का रूप लेने लगा। इस प्रक्रिया में कई अवसर ऐसे भी आए जब छात्रों, अभिभावकों, अधिकारियों व अध्यापकों के कारण मन कुंठित व कलांत हुआ। उन जैसा बन जाने का भी मन हुआ परन्तु आपकी प्रेरणा व आशीर्वाद ने मुझे बचा लिया।
    शहरों से फैलता हुआ अब ट्यूशन का जाल कस्बों और गाँवों तक फैल गया है। इस विद्यालय के विज्ञान और गणित अध्यापक खूब ट्यूशन करते हैं। स्कूल से अधिक परिश्रम वे घर की कक्षाओं में करते हैं। अंग्रेजी का अध्यापक होने के नाते आरम्भ में कुछ विद्यार्थी मेरे पास भी ट्यूशन रखने आये थे। मैंने तो स्पष्ट कह दिया-स्कूल में मुझ से कुछ भी समझ लो, घर पर समझो आ जाओ, परन्तु ट्यूशन के रूप में नहीं। गुरु जी आपने ही बताया था कि ट्यूशन करने वाले अच्छे से अच्छे अध्यापक में भी कमजोरी आ जाती है। आपका अनुकरण करते हुए मैंने भी ट्यूशन न करने का संकल्प किया हुआ है। जो अध्यापक ट्यूशन नहीं करते, वे दूसरे पार्ट टाइम काम करते हैं। सामाजिक ज्ञान का अध्यापक प्रोपर्टी डीलर का काम करता है। बहुत कम स्कूल आता है और जब आ जाता है तो उसके कान पर फोन लगा रहता है। ड्राइंग मास्टर की स्टेशनरी की दुकान है, सुबह उसकी पत्नी और शाम को वह खुद दुकान पर बैठते हैं। संस्कृत शिक्षक, शास्त्री जी, विवाह-महूर्त, जन्म-पत्री, ज्योतिष आदि अनेक कामों में लगे रहते हैं। पी.टी.आई. दिन-रात अपने खेतों तथा पशुओं की देखभाल करने की योजना बनाता रहता है। सांय को दूध बेचता है और स्कूल में बैठकर सबका हिसाब जोड़ता है। संक्षेप में कहूँ तो पूरा स्कूल एक डिपार्टमैंटल सर्विसिज एजेन्सी-सा लगता है।
    आपने ठीक लिखा है कि अध्यापक के शब्दों में बहुत ताकत होती है। दृढ़ इच्छा से कुछ भी कराया जा सकता है। मैंने कई छात्रों पर इसका प्रयोग किया। आपकी दया से सफलता मिली। उत्साह भी बढ़ा और अधिकारियों में साख बढ़ी। प्रत्येक मास जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय में होने वाली मासिक बैठक में मुझे शैक्षिक सलाहकार के रूप में बुलाया जाने लगा है।
    गुरु जी एक बात मैं सच्चे मन से आपके सामने रखना चाहता हूँ। जब मै छात्र था तो सोचता था गुरु जी सदैव बच्चों के पीछे पड़े रहते हैं। क्यों प्रतिदिन स्कूल आ धमकते हैं? कोई नेता क्यों नहीं मरता की स्कूल की छुट्टी हो जाए? क्यों बार-बार परीक्षा का आतंक दिखाया जाता है? परन्तु आज ये सब बातें बेमानी लगती हैं। कैसी नादानी थी उन दिनों। आज अध्यापक बनने के बाद साफ-साफ समझ में आ रहा है। छात्रों को श्रेष्ठ बनाने के लिए अध्यापक को कुछ तो अंकुश लगाना ही पड़ता है। कच्चे घड़े की मानिंद एक ओर से हाथ का सहारा देकर पीटना पड़ता है। तभी तो घड़े का सुन्दर व उपयोगी रूप बनकर निकलता है।
     विद्यार्थियों के साथ खेलना मैंने आपसे सीखा था। आपके साथ इस सुखद समाचार को भी बाँटना चाहता हँू कि इस वर्ष हमारे विद्यालय की फुटबाल टीम ने जिला स्तरीय खेलों में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। हमारी टीम के पाँच छात्रों का चयन स्टेट में खेलने के लिए हुआ है। इन्हीं सफलताओं के कारण छात्र व अभिभावक मेरा बहुत सम्मान करते हैं। दूध, दही, लस्सी, अनाज, गुड़ न जाने क्या-क्या मेरे मना करने के बाद भी चुपचाप मेरे घर में रख जाते हैं। आपने सच लिखा था गुरुजी, यह सब मान-सम्मान और आनंद किसी और व्यवसाय में कहा..?
     गुरु जी, ये सच है, मैं जार्ज बर्नाद शॉ के अनुसार जब कुछ न बन सका तो शिक्षक बन गया, परन्तु आप निश्चय रखा मैं अध्यापक बन तो गया, अब अध्यापक होकर भी दिखाऊँगा।
     अपना आशीर्वाद यथावत बनाए रखना।
आपका शिष्य
राधारमण
सांकला, 2 अक्टूबर, 2010
प्रिय राधारमण,
     उद्र्धोभव:। तुम्हारा दूसरा पत्र पढक़र मुझे जो खुशी और संतोष हुआ वह ऐसा ही था जो एक दीपक द्वारा दूसरे दीपक को प्रज्वलित करके होता है। माता-पिता और गुरु संसार में ऐसे प्राणी हैं जो अपने अनुज को अपने से भी बड़ा देखकर गर्व अनुभव करते हैं, क्योंकि उसमें उनका शारीरिक और वैचारिक अंश होता है।
    आधुनिक युग में धन-लोलुपता को त्याग कर तुम ट्यूशन से अलग रहे हो तो मैं तुम्हें अपने से अधिक श्रेष्ठ बनाता हूँ। क्योंकि जिन दिनों मैंने ट्यूशन से बचने का फैसला किया था उन दिनों यह कार्य अधिक दुरुह नहीं था। परन्तु आज के भौतिक युग में यह बहुत कठिन कार्य है।
    ऐसा नहीं है कि पूरा शिक्षक समाज आलसी, भ्रष्ट और गैर-जिम्मेदार है। यदि ऐसा होता तो शिष्यों का शिक्षकों से विश्वास उठ चुका होता। यूँ कहीं-कहीं ऐसा समाचार भी आ जाता है जो गुरु के सम्मान और प्रतिष्ठा पर प्रश्र चिह्न खड़ा कर देता है, परन्तु उन अध्यापकों की चर्चा नहीं होती जो चुपचाप मनोयोगपूर्वक अपने शिष्यों के सर्वांगीण विकास में लगे रहते हैं। 
     सांय के समय मैं दो घंटे बच्चों के साथ फुटबाल खेलता हूँ। बच्चों को तो लाभ होता ही है, परन्तु इससे मुझे जो स्वास्थ्य लाभ मिलता है उसी का परिणाम है कि पचास साल पार कर जाने के बाद भी लोग मुझे 35-40 का समझते हैं। यह क्या कम उपलब्धि है कि पचास साल बीत जाने के बाद भी मैंने आज तक किसी भी प्रकार की दवा का सेवन नहीं किया है। किसी अयोग्य छात्र को योग्य बनाने के लिए प्रेरित करना, उस पर उसका प्रभाव दिखाई देना सचमुच कितना संतोष और सुख प्रदान करता है इसका मैं आजकल अनुभव करने लग गया हूँ। पूरा दिन, सप्ताह, माह और एक वर्ष कब बीत जाता है पता ही नहीं चतला। पुराने छात्र जाने के बाद नये छात्र, नये अनुभव, नया संघर्ष, सब कुछ कितना मजेदार होता है, बताया नहीं जा सकता। आज के युग में रोजी-रोटी कमा लेना कोई मुश्किल कार्य नहीं है। रोजी-रोटी से पेट तो भर जाता है लेकिन एक मन की भूख होती है, ज्ञान की पिपाषा होती है, उसी को शांत करने के लिए एक शिष्य अपने गुरु के पास आता है। उन दोनों के बीच जब सही संवाद होता है तब शिक्षण का विकास होता है। यही निरन्तर संवाद ही अध्यापक को श्रेष्ठता प्रदान करता है।
     एक अच्छा अध्यापक कभी नहीं मरता। वह अपने शिष्यों के विचारों में सदैव परिलक्षित होता रहता है। छात्र एक आइना होता है। तुम्हारे खतों को पढक़र आज मुझे अपने गुरु जी की याद आ गयी। उनका बहुत प्रभाव है मुझ पर। काश वो इस दुनिया में होते तो मैं उन्हें $खत लिखता।
     राधारमण, मैं तुम्हें क्या बताऊँ अध्यापक तो एक राजा के समान होता है। राजा कंस ने अपने पिता को कारागार में डालने से पूर्व उनकी इच्छा जाननी चाही तो महाराज उग्रसेन ने समय व्यतीत करने के लिए कुछ शिष्यों को पढ़ाने की इच्छा व्यक्त की थी, तब दुष्ट कंस ने कहा था अभी तक सम्राट बनने की बू आपमें से गई नहीं। हमारे धर्म-शास्त्र इस बात के गवाह हैं कि राजा ने सदैव अपने गुरुओं को अपने से श्रेष्ठ और सम्मानित समझा है तभी तो अरस्तु ने सिकन्दर से कहा कि भारत से मेरे लिए एक गुरु लेकर आना। यही सच्चे गुरु की प्रतिष्ठा है और इसी प्रतिष्ठा को हमें बनायेे रखना है।
    तुम्हारा
विद्याभूषण
     राधारमण को इतना लम्बा पत्र लिखकर विद्याभूषण ने लिफाफे में बंद कर दिया। इत्मिनान से उसको एक तरफ रख पढऩे के लिए अखबार उठाया तो प्रथम पृष्ठ पर राज्य पुरस्कार के लिए श्रेष्ठ अध्यापकों की लिस्ट छपी हुई थी। लिस्ट में पहला ही नाम राधारमण का था। विद्याभूषण ने खड़े होकर पेपर उछाल दिया और आत्म-विभोर होकर नाचने लगे। एक क्षण ऐसा लगा की यह पुरस्कार उनके लिए ही घोषित हुआ है। वे राधारमण को हार्दिक बधाई देने के लिए सावधानीपूर्वक लिफाफे में पड़े खत को खोलने लगे।
-मधुकांंत
211 -एल, मॉडल टाऊन, डबल पार्क, रोहतक

महेंद्र मिहोनवी की ग़ज़ल

इस हुकूमत में सबकी भलाई कहें
साफ ज़ाहिर ज़हर को दवाई कहें
जब अमावस की मानिन्द है जि़न्दगी
क्या गज़ल चाँदनी मे नहाई कहें
तब समझना कि ये भारी असगुन हुआ
जब गरीबों को वो अपना भाई कहें
अस्पतालों से साबुत निकल आये हैं
ये बड़े बेशरम हैं बधाई कहें
आप कहते हैं देवी जिसे मंच पर
घर के भीतर उसी को लुगाई कहें
इतना खामोश रहना भी अच्छा नहीं
कुछ तो अपनी कुछ पराई कहें
-सरकारी अस्पताल के पास मिहोना (भिण्ड) 09893946985

विज्ञानं व्रत की ग़ज़ल

तुमने जो पथराव जिए
हमने उनके घाव जिए
बचपन का दोहराव जिए
हम का$गज़ की नाव जिए
वो हमसे अलगाव जिए
यानी एक अलाव जिए
सुलझाने को एक तनाव
हमने कई तनाव जिए
जिसको मंजि़ल पाना है
वो क्या $खाक पड़ाव जिए
-एन-138, सेक्टर-25, नोएडा

अंसार कंबरी की ग़ज़ल

धूप का जंगल, नंगे पावों, इक बंजारा करता क्या
रेत के दरिया, रेत के झरने, प्यास का मारा करता क्या
बादल-बादल आग लगी थी, छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था, पेड़ बेचारा करता क्या
सब उसके आँगन में अपनी, राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी, घर-चौबारा करता क्या
तुमने चाहे चाँद-सितारे, हमको मोती लाने थे
हम दोनों की राह अलग थी, साथ तुम्हारा करता क्या
ये है तेरी, और न मेरी, दुनिया आनी-जानी है
तेरा-मेरा, इसका-उसका, फिर बँटवारा करता क्या
टूट गये जब बंधन सारे और किनारे छूट गये      
बीच भँवर में मैंने उसका, नाम पुकारा करता क्या
-ज़फर मंजि़ल, 11/116-ग्वालटोली, कानपुर

अनुराग मिश्र 'गैर' की ग़ज़ल

शहर से जब गाँव वो आ जाएगा
देखना फिर आदमी हो जाएगा
जब अंधेरे में करेगी माँ दुआ
हर तरफ इक नूर-सा छा जाएगा
कल किया है पत्थरों ने फैसला
बोलना अब लाज़मी हो जाएगा
रातभर माँ को रही उम्मीद ये
भूखा बच्चा नींद में सो जाएगा
चाँद को धरती पे मत लाना कभी
वह हमारी भीड़ में खो जाएगा
उससे मेरा जि़क्र मत करना '$गैरÓ
वह पुरानी याद में खो जाएगा
-10-स्वप्रलोक कॉलोनी
कमता, चिनहट, लखनऊ

सुरेश मक्कड़ 'साहिल' की ग़ज़ल

मु$फ्त में कुछ भी दे व्यापारी, बहुत कठिन है
घोड़ा करे घास से यारी, बहुत कठिन है
सज़दा करने वालों की बस्ती में, प्यारे !
ढूँढ़ रहे हो तुम $खुद्दारी, बहुत कठिन है
चपरासी तो समझ गया है, मेरी समस्या
समझ सकेगा क्या अधिकारी, बहुत कठिन है
रिश्वत लेकर फँसा जो यारो! दे कर छूटा
रुक पाएगी ये बीमारी, बहुत कठिन है
सय्यादों के गठबन्धन ने जाल बिछाया
पंछी समझ सकें मक्कारी, बहुत कठिन है
एक व्यथा जो हो मन की तो कह दूँ तुमसे
समझाना पीड़ाएँ सारी, बहुत कठिन है
जीना भी आसान नहीं दुनिया में लेकिन
मरने की करना तैयारी, बहुत कठिन है
नंगे पाँव चले हो  'साहिलÓ सँभल के चलना
राह उसूलों की ये तुम्हारी बहुत कठिन है ।
-नगरपालिका के सामने, महेन्द्रगढ

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उसूल-राजेन्द्र नाथ 'रहबर'

फर्क है तुझ में, मुझ में बस इतना,
तू ने अपने उसूल की खातिर,
सैंकड़ों दोस्त कर दिए कुर्बां,
और मैं! एक दोस्त की खातिर,
सौ उसूलों को तोड़ देता हूँ।
-1085, सराय मोहल्ला, पठानकोट

Sunday, April 19, 2015

हरियाणा साहित्य अकादमी सूचना पत्र 2015 जारी

हरियाणा साहित्य अकादमी ने लेखकों एवं संस्थाओं के लिए सूचना पत्र 2015 जारी कर दिया है|  हरियाणा के साहित्यकार पुरस्कार/सम्मान, श्रेष्ठ कृति पुरस्कार, पुस्तक प्रकाशन हेतु अनुदान, कहानी प्रतियोगिता आदि के लिए आवेदन भेज सकते हैं|
अंतिम तिथि- आवेदन भेजने की अंतिम तिथि 30 अप्रैल, 2015 है|
सूचना पत्र अकादमी के कार्यालय से प्राप्त किया जा सकता है, डाक से मंगवाया जा सकता है या वेबसाइट से डाउनलोड किया जा सकता है| अधिक जानकारी और आवेदन पत्र के लिए अकादमी की साईट का लिंक है haryanasahityaakademi.org 

Wednesday, April 15, 2015

अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की रचनाएँ

चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है
देखना है ये तमाशा कौन-सी मंजिल में है

कौम पर कुर्बान होना सीख लो ऐ हिन्दियो
ज़िन्दगी का राजे-मुज्मिर खंज़रे कातिल में है

साहिले मक़सूद पर ले चल खुदारा नाखुदा
आज हिन्दुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है

Tuesday, April 14, 2015

मैं चमारों की गली में ले चलूँगा आपको


आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

क्रांतिवीर ही नहीं साहित्यकार भी थे पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांति समर्थक युवाओं का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इनमें रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिहँ, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाकुल्ला खॉन, राजेन्द्र सिंह लाहड़ी, रोशन सिंह, राजगुरू, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा, उधम सिंह और करतार सिंह सराभा जैसे असंख्य नामवर और गुमनाम राष्ट्रभक्त शामिल थे। किंतु आजादी के बाद देश की बागडोर गांधीवादी कांग्रेसियों के हाथों में आ जाने के परिणामस्वरूप क्रांतिवीरों को सरकारी उपेक्षा का शिकार होना पड़ा जिसके चलते आज तक उन अमर शहीदों के व्यक्तित्व और कृतित्व का सही मूल्यांकन नहीं हो सका है। किसी को काकोरी कांड का शहीद और किसी को असेम्बली बम कांड के शहीद नाम देकर दरकिनार कर दिया गया। जबकि वास्तविकता यह है कि ये शहीद न केवल आजादी के सर्वोच्य आदर्श के लिए अपना सर्वोच्य बलिदान देने वाले थे बल्कि वे उच्च कोटी के चिन्तक और साहित्यकार भी थे।

Sunday, April 12, 2015

अशोक अंजुम के दोहे

महँगाई ने थामकर, हाथों में बंदूक।
दुखिया से खुलवा लिया, पुरखों का संदूक।।

होरी किडनी बेचता, धनिया बेचे लाज।
बाज़ारों की रागिनी, महँगाई का साज।।

आमदनी तो बढ़ रही, फिर भी रहे उदास।
सब चिंतित कैसे बुझे, महँगाई की प्यास।।

Friday, April 10, 2015

अम्बरीष श्रीवास्तव के कुण्डलिया छंद

 दोहा कुण्डलिया बने, ले रोले का भार।
अंतिम से प्रारम्भ जो, होगा बेड़ा पार।।
होगा बेड़ा पार, छंद की महिमा न्यारी।
अंतिम में हो दीर्घ, कहे यह दुनिया सारी।
अम्बरीष क्या छंद, शिल्प ने सबको मोहा। 
सर्दी बरखा धूप, खिले हर मौसम दोहा।।

राधा-केशव साथ में, मन-मंदिर प्रिय हेतु।
नदी किनारे आ मिले, बना हृदय जो सेतु।|

Thursday, April 9, 2015

डॉ.कृष्णकुमार ' नाज़' की ग़ज़ल

शाम का वक़्त है शाखों को हिलाता क्यों है
तू थके-मांदे परिंदों को उड़ाता क्यों है

स्वाद कैसा है पसीने का ये मजदूर से पूछ
छाँव में बैठकर अंदाजा लगता क्यों है

मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढाता क्यों है

लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला के छंद

नारी करती नौकरी, उत्पीडऩ को झेल।
समता के अधिकार में, बाधक है यह खेल।।
बाधक है यह खेल, देश की साख गिराता।
उत्पीडऩ अपराध, घरों में भी दिख जाता।
कहाँ मिलेगा न्याय, घूमती मारी-मारी।
सरकारें नाकाम, दुखी है अब तक नारी।।

राहुल गुप्ता के कुण्डलिया छन्द

मानवता को मारना, राजनीति का काम।
इन्सां की कीमत नहीं, चित्रों के हैं दाम।।
चित्रों के हैं दाम, संतजन काम न करते।
ढोंग और पाखंड, देश में चोखे चलते।
चलते चोखे काम, नमन है दानवता को।
कितना है आसान, मारना मानवता को।।

सी.एम्. उपाध्याय 'शून्य आकांक्षी' के कुण्डलिया छन्द

बच्चे को सिखला रहे, झूठ बोलना पाप।
बोलेंगे बच्चे सदा, सच बोलें यदि आप।।
सच बोलें यदि आप, देश का भाग्य जगेगा।
कितने से हैं पाँव, दबा दुम, झूठ भगेगा।
कहें शून्य कविराय, बड़े यदि सच में सच्चे।
झूठ बोलना पाप, स्वयं सीखेंगे बच्चे।।

कल्पना रामानी के कुण्डलिया छंद

वहाँ न जाना शीत तुम, दीन बसे जिस ओर।
चिथड़ों में लिपटे हुए, काट रहे हों भोर।।
काट रहे हों भोर, न कोई छप्पर सिर पर।
फिरते नंगे पाँव, पेट ही भरना दूभर। 
बनना उनकी मीत, न उनको कभी सताना।
दीन बसे जिस ओर, शीत तुम वहाँ न जाना।। 

कुण्डलिया छंद डॉ.तुकाराम वर्मा

किनके साथी चोर हैं, किनके क्रूर डकैत।
समझो किनके सामने, रहते खड़े लठैत।।
रहते खड़े लठैत, न सच-सच कहने देंगे।
अगर दिये न वोट, तुरत वह दम ले लेंगे।
नहीं बचेंगे मित्र, घरौंदों तक के तिनके।
वधिकों जैसे कार्य, हुए हैं परखो किनके?

Wednesday, April 8, 2015

संवेदनाओं का विस्तार करता लघुकथा संग्रह : प्रतिबिम्ब


आधुनिक परिवेश और प्रकृति की उपज है - लघुकथा। लघुकथा की परिभाषा इसके नाम में ही शामिल है। यह सीमित आकार वाली वह कथात्मक रचना है जो द्वन्द्वमूलक नाटकीय प्रसंग विधान के माध्यम से विकृति पर प्रहार करके पाठकों को सही सांस्कृतिक दिशा में सोचने को प्रेरित करती है। लघुकथा की आकारगत लघुता उसे कलात्मक कसाव प्रदान करती है। साथ ही पाठक की संवेदनशीलता जगाकर मन की ऋतु का परिवर्तन कर सकती है। कहते हैं, लघुकथा लेखन गागर में सागर भरने जैसा है। बात ठीक है, परन्तु यह ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि सागर में कई विषैले जीव-जन्तु भी रहते हैं। इन सबको एक साथ भर लेने से गागरी फूटने का डर रहता है।

दोहे


खुद को अच्छा कीजिए, धर ईश्वर का ध्यान !
अच्छे हैं यदि आप तो, अच्छा सकल जहान !!

उँगली नहीं उठाइये, किसी और पर आप !
पहले खुद को नापिये, भलमंसी की नाप !!

पहले खुद को तौलिये, तब दूजे पर ध्यान !
देंगे यदि सम्मान तो, पायेंगे सम्मान !!

Monday, April 6, 2015

कबीर की शैली में धारदार रचनाएं

रघुविन्द्र यादव के दो दोहा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं तथा मुझ में संत कबीर’ उनका प्रथम कुंडलिया छंद संग्रह है। कुंडलिया एक मुश्किल छंद है और इसे साधना सहज नहीं है। इसे तो वही साध सकता है जिसे खांडे की धार पर नंगे पांव चलने में महारत हासिल हो। वे अपने प्रथम कुंडलिया छंद संग्रहमुझमें संत कबीर’ में एक छंदसिद्ध कवि के रूप में सामने आये हैं। हिंदी कविता में कुंडलियां छंद कवि गिरधर के नाम से जाना जाता हैलेकिन रघुविन्द्र यादव ने अपना संबंध कबीर से जोड़ा है और इसकी वजह भी अब हम कवि से ही जानें :-मरने मैं देता नहींअपना कभी ज़मीर।इसीलिए ज़िंन्दा रहामुझमें संत कबीर।।मुझमें संत कबीर बैठकर दोहे रचता।कहता सच्ची बातकलम से झूठ न बचता।(पृ.55)इस कृति की राह से गुजरने पर पता चलता है कि कवि का रास्ता वाकई कबीर का है। उनकी कविता ऐन मुहाने पर चोट करती है। देखें यह पंक्तियां जो पाठक की चेतना पर चोट करती है

समय से संवाद करते मुक्तकों का संग्रह : आँसू का अनुवाद

काव्य के विषयगत दो भेद होते हैं-प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्य। प्रबंध काव्य में विषय विशेष को छंदोबद्ध कविता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जबकि मुक्तक काव्य की विषय सामग्री स्वतंत्र होती है और चार सममात्रिक पंक्तियों में ही स्वतंत्र भाव अथवा विचार को किसी छंद में प्रस्तुत करती है। मुक्तक काव्य में छंद विशेष की बाध्यता नहीं होती और यह किसी भी छंद में लिखा जा सकता है, मगर जिस भी छंद का चुनाव किया जाये उसका निर्वाह किया जाना अपेक्षित है। सामान्यत: मुक्तक में चार सममात्रिक पंक्तियाँ होती हैं। जिसकी पहली, दूसरी और चौथी पंक्ति में तुकान्त या समान्त होता है, जबकि तीसरी पंक्ति में तुकान्त/समान्त होता भी है और नहीं भी, लेकिन कथ्य का उद्वेग अवश्य होता है। आपाधापी के इस दौर में लोगों के पास  लम्बी कविताओं को पढऩे का वक्त नहीं है इसलिए दोहे की तरह मुक्तक भी लोकप्रिय होते जा रहे हैं।

विद्रूपताओं को बेपर्दा करता गीतिका संग्रह : कौन सुने इकतारा

भद्रजनों को संबोधित कर पद्य में बात कहने की परम्परा काफी पुरानी है। कबीर साहब जहाँ 'साधो' संबोधन का प्रयोग करते थे, वहीं उर्दू-फारसी के रचनाकार 'शैख जी' को संबोधित कर अपनी बात कहते रहे हैं। श्री रमेश जोशी का सद्य प्रकाशित गीतिका संग्रह 'कौन सुने इकतारा' इसी शैली की रचनाओं का संग्रह है, जिसे डॉ.रणजीत ने कबीर की चौथी विधा बताया है। जोशी जी ने अपनी बात 'भगत जी' और 'भगतो' संबोधनों का प्रयोग करते हुए गीतिका में कही है। जोशी जी ने कबीर की शैली को ही आत्मसात नहीं किया है वरन् उनकी रचनाओं की धार और मार भी कबीर जैसी ही है-

सुने न कोई हाल भगत जी
भूलो दर्द मलाल भगत जी
राजा बहरा जनता गूँगी
पूछे कौन सवाल भगत जी
भूख मज़ूरी मौज़ दलाली
बुरा देश का हाल भगत जी
अब घडिय़ालों के कब्ज़े में
है बस्ती का ताल भगत जी
कवि ने राजनीति, समाज, मंच, मीडिया, पर्यावरण, शिक्षा, नारी, पश्चिम के अंधानुकरण, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, जीवन की विसंगतियों, मूल्यहीनता, गाँवों की बदहाली आदि जीवन और जगत से जुड़े अनेक विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है। आलोच्य कृति में कुल 105 गीतिकाएँ शामिल की गई हैं।
जोशी जी का संवेदना-संसार व्यापक है और सहज-सरल भाषा में अपनी बात कहने में निपुणता हासिल है। कवि सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण से आहत है, उसे लगता है कि अब 'मंच मीडिया और सत्ता सभी पर लम्पट भाँड और नचनिया काबिज़ हो गए हैं', 'उपभोक्ता को ललचाने के लिए मॉडल वस्त्र उतार रही हैं', 'संयम गायब है और सबको भोग का बुखार चढ़ा है', 'सत्ता काजल की कोठरी बन चुकी है, जिसमें कोई दूध का धुला नहीं है', 'ब्रेक डाँस की महफिलें हैं, जहाँ इकतारा सुनने वाला कोई नहीं है' और 'पूर्व के अंधों को पश्चिम में उजियाला नज़र आ रहा है।' कवि ने जीवन के जटिल यथार्थ को भी धारदार भाषा में सहजता से प्रकट किया है।
नारी पूजक इस देश में आज यदि कोई सबसे अधित असुरक्षित है तो वह है नारी। जो गर्भ में भी सुरक्षित नहीं वह घर और समाज में कैसे सुरक्षित होगी? कवि जब नारी की दशा का वर्णन करते हुए कहता है-
हवा धूप से डरता जिसकी
बेटी हुई जवान भगत जी
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द्रौपदियों पर ही लगता है
दुर्योधन का दाँव भगत जी
तो आज के समाज का नंगा यथार्थ अपने विद्रूपित चेहरे के साथ सामने आ जाता है। इसी प्रकार जब कवि मौजूदा व्यवस्था के षड्यंत्रकारी शोषक चेहरे को बेनकाब करते हुए कहता है-
सस्ते शिक्षा ऋण पर चाहे
ध्यान न दे सरकार भगत जी
मगर कार ऋण देने खातिर
बैंक खड़े तैयार भगत जी
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जाने दस्यु-मुक्त कब होगी
लोकतंत्र की चम्बल भगतो
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लोकतंत्र में कुत्ता करता
हड्डी की रखवाली भगतो
तो भारतीय राजनीति का कड़वा सच सामने आ जाता है कि किस तरह लोकतंत्र में लोक उपेक्षित है।
कवि की पैनी नज़र से समाज की विसंगतियाँ और विद्रूपताएँ छुपी नहीं हैं। बुजुर्गों को आज जिस प्रकार से उपेक्षित और अपमानित किया जा रहा है वह दुखद और विचारणीय है-
जब से नई बहू आई है
बाहर बैठी माँ जी भगतो
कवि की भाषा मुहावरेदार है और कथ्य को प्रभावशाली बनाने के लिए उर्दू, फारसी, पंजाबी, अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ देशज शब्दों का भी प्रयोग किया है-
छाछ शिकंजी को धमकाता
अमरीका का ठंडा भगतो
है बंदर के हाथ उस्तरा
कर डालेगा कुंडा भगतो
कवि अपने परिवेश के प्रति सजग और संवेदनशील है। जल को व्यापार की वस्तु बना दिए जाने और अब तक स्वच्छ पेयजल उपलब्ध न होने पर कटाक्ष किया है-
क्या दारू क्या गंदा पानी
हमको मरना पीकर भगतो
---
ढोर पखेरू निर्धन प्यासे
पानी के भी दाम भगत जी
चौतरफा पतन और गिरावट के बावजूद कवि निराश नहीं है, उसे यकीन है कि सुबह ज़रूर आएगी-
आशा से आकाश थमा है
कभी न छोड़ो आस भगत जी
अंधियारे के पीछे-पीछे
आता सदा उजास भगत जी
मीथकों का प्रयोग अत्यंत प्रभावी है। द्रौपदी, दुर्योधन, कृष्ण, कंस, राम, सीता, दसानन आदि का प्रयोग करके कवि ने अभिव्यक्ति को दमदार बनाया है। पेपर बैक इस 112 पृष्ठ वाली कृति की साज-सज्जा आकर्षक और मूल्य 125 रुपए बहुत वाजि़ब है। कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले इस संग्रह का साहित्य जगत से व्यापक स्वागत होगा, ऐसा विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है।

कृति-कौन सुने इकतारा
कवि-रमेश जोशी
पकाशक-अनुज्ञा बुक्स, शहादरा, दिल्ली
पृष्ठ-112 मूल्य-125 रुपए

                                                                 -रघुविन्द्र यादव


बात तो बोलेगी

बात बोलेगी मुरादाबाद के चर्चित रचनाकार श्री योगेन्द्र वर्मा व्योम की सद्य प्रकाशित कृति है। जिसे गुँजन प्रकाशन, मुरादाबाद ने प्रकाशित किया है। इस कृति में देश के पन्द्रह प्रसिद्ध गीत/नवगीतकारों और शायरों के साक्षात्कार प्रस्तुत किए गए हैं। जिनमें डॉ.शिवबहादुर सिंह भदौरिया, श्री ब्रजभूषण सिंह गौतम अनुराग, श्री देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, श्री सत्यनारायण, श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव, श्री शचीन्द्र भटनागर, डॉ.माहेश्वर तिवारी, श्री मधुकर अष्ठाना, श्री मयंक श्रीवास्तव, डॉ.कुँवर बेचैन, श्री ज़हीर कुरैशी, डॉ.ओमप्रकाश सिंह, डॉ.राजेन्द्र गौतम, श्री आनन्दकुमार गौरव और डॉ.कृष्णकुमार राज शामिल हैं।

साक्षात्कार का सबसे महत्वपूर्ण पहलु है कि साक्षात्कार करने वाले को खुद इस बात का पूरी तरह से ज्ञान होना चाहिए कि वह सामने वाले से क्या जानना चाहता है और इसी आधार पर प्रश्रोत्तरी तैयार की जानी चाहिए। श्री योगेन्द्र व्योम ने यह कार्य पूरी दक्षता के साथ किया है। उन्होंने ने न सिर्फ देश के वरिष्ठ रचनाकारों से उनके साहित्य के संदर्भ में चर्चा की है अपितु गीत-नवगीत और $गज़ल की दशा और दिशा के बारे में भी महत्त्वपूर्ण सवाल किए हैं। वरिष्ठ रचनाकारों के साथ की गई चर्चा नये कलमकारों के पथ-प्रदर्शक का काम करेगी। नये रचनाकार और पाठक जान सकेंगे कि गीत और नवगीत में क्या अंतर है, $गज़ल और गीत-नवगीत में क्या अंतर है और इनके सृजन के लिए क्या-क्या बातें ध्यान में रखना जरूरी है कि साहित्य टिकाऊ बने।
गीत-नवगीत के भविष्य के प्रति पुरानी पीढ़ी की सोच क्या है और वे किस हद तक आश्वस्त हैं, शायर गीत के साथ और गीतकार गज़ल के साथ न्याय कर रहे हैं या नहीं, गीत के कथ्य में क्या परिवर्तन आया है, नवगीत के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं, हिन्दी $गज़ल को कहाँ तक सफलता मिली है आदि सवालों के जवाब श्री व्योम ने उन रचनाकारों से पूछे हैं जिनका इन विधाओं को बुलंदियों पर ले जाने में अहम योगदान है।
बात बोलेगी के माध्यम से केवल गीत और गज़ल की ही जानकारी पाठकों को नहीं मिलेगी बल्कि वरिष्ठ रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व से भी पाठक रूबरू हो सकेंगे। अगर यह कहा जाए कि कृति हर लिहाज से एक एतिहासिक दस्तावेज बन गई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आकर्षक आवरण, सुन्दर और शुद्ध छपाई वाली इस 208 पृष्ठ वाली कृति का मूल्य 300 रुपये वाजिब ही कहा जाएगा। कृति पठनीय है और व्योम जी बधाई के पात्र।

                                                                         -रघुविन्द्र यादव 


परहित की पगडंडियां तलाशते दोहे

विचार विधाओं में बंधकर कदापि नहीं रहा करते हैं। कई विधाओं में एक साथ इसी बात को पुख्ता करते हुए छह लघुकथाबालकविता और बालकथा संग्रहों के पश्चात कृष्णलता यादव की सातवीं कृति मन में खिला वसंत’ (दोहा-संग्रह) हाल ही में प्रकाशित हुई है।समीक्ष्य कृति मन में खिला वसंत’ में 666 विविधवर्णी दोहे संकलित हैं जो आठ उपशीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किए गए हैंकामनापर्यावरणआपदादीवालीहोलीराजनीतिनीति और विविध। कामना’ के अंतर्गत कवयित्री ने परनिंदाआडम्बरजाति-पाति के बंधनों व दुर्भाव को बिसराकर जनकल्याण की भावना को प्रमुखता देते हुए मां शारदे से कामना की है। वह कहती हैं :-सुनो अरज मां शारदेदो अपना आशीष। उत्तम होवे भावनाघटे जगत् की टीस॥ वास्तव में आज के दौर की सर्वोपरि चिन्ता हैदूषित पर्यावरण। पर्यावरण का दूषित होना सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए खतरे की घंटी है। दूषित पर्यावरण पेड़-पौधोंजीव-जंतुओंनदियोंधरतीपहाड़ोंहवा आदि सभी के लिए अहितकर है। तभी तो कवयित्री चीत्कार कर उठती हैं :-हरियाली छिटकी हुईसूने हैं मैदान। कहीं वाह’ का दौर हैकहीं आह’ के गान॥ किसी भी प्रकार की आपदा’ जीवन को नष्ट करती है। इसकी पृष्ठभूमि में मानव का बड़ा हाथ है। कवयित्री की चिन्ता साफ दृष्टिï गोचार होती है:-भोर हुई निरभागिनीखुशी रही कब शेष।क्रूर काल का डाकियाकहे शोक-संदेश॥ ‘दीवाली’ उजियारों का पर्व है जो अंधकार पर प्रकाश की विजय का घोतक भी है। देखिए :-ज्यों-ज्यों जलती जा रहीनवदीपों की पांत।छोटी त्यों-त्यों हो रहीअंधियारे की आंत॥मस्ती का वाहक त्योहार है—’होली। यह बुरे भावों को जलाकर राख कर डालता है और हर दिशा में बस मिलन का बोलबाला दिखता है। फागुनी हवाओं में भी रंग-अबीर तैरने लगता है। एक उदाहरण :-होली पर अंटने लगे,भेदभाव के कूप।राजा हो या रंक होलगें सभी समरूप॥इक्कीसवीं शताब्दी में राजनीति’ से नीति $गायब हो गयी हैरह गया है सिर्फ राज। विकृत राजनीति ने लोकतंत्र का रूप खूब बिगाड़ दिया है। बेचैन नर-नारी यहां-वहां मारे-मारे फिरते हैं तथा स्वतंत्र होकर भी परतंत्र लगते हैं। भ्रष्टाचारमहंगाईकालाधनरिश्वतचोरबाज़ारीबलात्कारलूटनारेआश्वासनचाटुकारितास्वार्थपरताघोटाले आदि इसी घृणित राजनीति के अनेकानेक चेहरे हैं।पांवों में नित चुभ रहेराजनीति के शूल। ‘राज’ राज होकर रहागया नीतियां भूल॥ ‘नीतिमानव को प्रीति की रीति सिखाती हुई चलती है जबकि अनीति गहरे गड्ढïे में धकेलती है। चालाकीबदनीयतकटु-वाणीकाम-क्रोधईष्र्या-द्वेषपरनिन्दाअज्ञानतानिठल्लापनअहंकारझूठदुष्टतामोह आदि को त्यागकर खुशबू की डगर पर पांव बढ़ाना ही समझदारी का काम है। प्यारसहयोगमित्रताभाईचाराअपनापनसद्भावनाविश्वाससाहसउत्तम उधम, गुणीजनों का साथ सही दिशा का निर्धारण कर लक्ष्य-प्राप्ति में सहायक बनते हैं। देखिए :-राहों में कांटे मिलेमंजि़ल भी थी दूर। कांटे बदले फूल मेंसाहस था भरपूर॥ कवयित्री कृष्णलता यादव ने विविध’ उपशीर्षक के अंतर्गत विभिन्न भावों से ओतप्रोत दोहे रखे हैं जो जीने की कला सिखाते हैंभटके हुए इन्सान को सचेत करते हैंबिगड़ी व्यवस्था पर चोट मारते हैंसुलह की वजह बांटते हैंधरा को स्वर्ग बनाने की कामना रखते हैंममता की छांव परोसते हैं और मानवता को दानवता के खूनी पंजों से मुक्त कराने का दम भरते हैं। उदाहरण दृष्टव्य है :-मानवता को थामिएहोने लगी अचेत।फिर ना कहना बावरेचिडिय़ा चुग गई खेत॥ अलग-अलग रंगों से पाठकों को रूबरू करवाते ये दोहे कथ्य और शिल्प की दृष्टि से उत्कृष्ट बन गए हैं। नये-नये बिम्ब एवं प्रतीक इनके प्राण हैं। इनकी सरलसहज एवं रोचक भाषा-शैली है। लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग सलीके से हुआ है। एक दोहे (पृष्ठ-21) की पुनरावृत्ति (पृष्ठ-64) शायद भूलवश हो गयी है। कुछेक शब्दों का तुक असंगत लगता है। कुल मिलाकर परिवेशगत विसंगतियों का पर्दाफाश करते हुए सभी दोहे परहित की पगडंडियां तलाशते नज़र आते हैं।

                                                   घमंडीलाल अग्रवाल
०पुस्तक : मन में खिला वसंत ०कवयित्री : कृष्णलता यादव ०प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौलीनयी दिल्ली-110030 ०प्रथम संस्करण : 2012 ०पृष्ठ संख्या : 96 ०मूल्य : रुपये 150/-.
देनिक ट्रिब्यून से साभार